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ग़ज़ल -- किसी का कहा मानता ही कहाँ है

122--122--122--122

किसी का कहा मानता ही कहाँ है
वो अपनी ख़ता मानता ही कहाँ है

न काफ़िर कहूँ तो उसे मैं कहूँ क्या
है बुत में ख़ुदा मानता ही कहाँ है

है छोटी बहुत सोच उसकी करें क्या
किसी को बड़ा मानता ही कहाँ है

शिकायत यही है हर इक आदमी की
मेरी दूसरा मानता ही कहाँ है

मेरे पास हल है, सभी मुश्किलों का
कोई मश् वरा मानता ही कहाँ है

लगाना पड़ा झूठ का मुँह पे ग़ाज़ा
कि सच आइना मानता ही कहाँ है

भला आदमी है उसे कुछ भी कहदो
किसी का बुरा मानता ही कहाँ है

रक़ीबों के झाँसे में आया है दिलबर
मुझे बावफ़ा मानता ही कहाँ है

हुक़ूमत है 'खुरशीद' अब तीरगी की
मगर हौसला मानता ही कहाँ है
मौलिक और अप्रकाशित

'खुरशीद' खैराड़ी जोधपुर । 09413408422

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Comment by Samar kabeer on July 11, 2017 at 8:38pm
जनाब ख़ुर्शीद ख़ैराडी साहिब आदाब,ओबीओ के मंच पर कई वर्षों के बाद वापसी पर आपका हार्दिक स्वागत है,और ओबीओ के मंच को आप जैसे अच्छे और जानकार शाइर की वापसी मुबारक हो,उम्मीद है अब आपकी सक्रियता बनी रहेगी और मंच को लाभान्वित करेगी ।
बहुत ही उम्दा और शानदार ग़ज़ल कही है आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में सही शब्द है "काफ़र" देखियेगा ।
Comment by Ravi Shukla on July 11, 2017 at 2:32pm

वाह वाह आदरणीय खुर्शीद जी बहुत खुब गजल कही आपने हर शेर बढि़या  मुबारक बाद पेश है मकता बहुत अच्‍छा लगा

Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 11, 2017 at 12:51pm

बहुत खूबसूरत , वाह 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on July 11, 2017 at 11:22am
वाह वाह बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
Comment by Mohammed Arif on July 11, 2017 at 8:15am
आदरणीय खुरशीद जी आदाब, बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

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