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ललक दिल को रिझाने की -लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ (ग़ज़ल)

ग़ज़ल


1222 1222 1222 1222

ललक दिल को रिझाने की जो खूनी हो गई होगी
किसी का सुख किसी की पीर दूनी हो गई होगी।1।

सभी के हाथ में गुल हैं यहाँ जुल्फें सजाने को
न जाने किस चमन की शाख सूनी हो गई होगी।2।

हवा बंदिश की सुनते हैं बहुत शोलों को भड़काए
मुहब्बत यार कमसिन की जुनूनी हो गई होगी।3।

हमें तो सुख रजाई का मिला है शीत में यारो
किसी जंगल में फिर से तेज धूनी हो गई होगी।4।

नहीं उसको शिकायत कुछ सुना है यार किस्मत से
गरीबी  से  भी  वो  शायद  सुकूनी  हो  गई  होगी।5।

बहाए उसने आँसू हों कि पोंछा हो पसीना यूँ
मगर तासीर दामन की तो नूनी हो गई होगी।6।

मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 804

Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 7, 2017 at 6:58pm

वाह मुग्ध होण पढ़कर, गज़ब एक से एक जानदार शेर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on May 7, 2017 at 5:17pm
बहुत सुन्दर सरस लयबद्ध रचना..सादर

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