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कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना
न तो माँ बाप चुनें और न घर ही को चुना
हम ने ये भी न चुना था कि बशर हो जायें.
हम को इंसान बना कर था यहाँ भेजा गया,
कैसे मज़हब के कई ख़ानों में तक्सीम हुए?
क्यूँ सिखाये गए हम को ये सबक नफरत के?
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हम ने दहशत से परे जा के बुना इक सपना
अपनी दुनिया न सही, काश हो आँगन अपना
ऐसा आँगन कि जहाँ साथ पलें राम-ओ-रहीम.
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जुर्म ये था कि जलाया था अँधेरों में चराग़
हम ने नफ़रत की हवाओं के मुख़ालिफ़ बन कर
धर्म-ओ-मज़हब की सियासत की ख़िलाफ़वर्ज़ी की.
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मुआशरा तल्ख़ हुआ क्यूँ ये शिकायत भी नहीं
दर्द बस ये कि कोई बात सुनी ही न गयी.
खून मिट्टी का था पर आप ने गद्दार कहा?
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कौन हिन्दू है यहाँ कौन मुसलमान यहाँ
कब्र की ख़ाक, चिताओं के धुएँ से पूछो.
सब परिन्दे हैं मुहब्बत की फ़ज़ाओं वाले.
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आइये मिल के जलाते हैं मुहब्बत का चिराग़
तेल भी हम ही बनें और हमीं बाती बनें,
इल्म का नूर बरसने और सहर होने तक.
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उसने पूछा ही नहीं कुछ तो बताते क्या हम
उस की मर्ज़ी है, यहाँ हम जो चले आए हैं,
वो जो वापस भी बुला ले तो कोई बात नहीं.
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दिल ने चाहा था सितारें या दीयें हो जायें
या कि ख़ुर्शीद या जुगनू या क़मर हो जायें
छाँव देता हुआ फलदार शजर हो जायें.
.
हम ने ये तो न चुना था कि बशर हो जायें
न तो माँ बाप चुने और न घर ही को चुना.
कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना.
कब चुना हमने मुसलमान या हिन्दू होना
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. समर सर,
आप ने जिन बिन्दुओं पर ध्यान दिलाया है मैं उन पर विचार कर के उन में तरमीम सोचता हूँ ...
बहुत बहुत आभार
शुक्रिया आ. सुशिल सरना जी
आदरणीय नीलेश जी गहन भावों की इस सुंदर ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
शुक्रिया आ. राघव साहब
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