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समझ पाये जो ख़ुद के पार आये,
तेरी दुनिया में हम बेकार आये.
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बहन माँ बाप बीवी दोस्त बच्चे,
कहानी थी.... कई क़िरदार आये.
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क़दम रखते ही दीवारें उठी थीं,
सफ़र में मरहले दुश्वार आये.
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शिकस्ता दिल बिख़र जायेगा मेरा,
वहाँ से अब अगर इनकार आये.
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उडाये थे कई क़ासिद कबूतर,
मगर वापस फ़क़त दो चार आये.
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समुन्दर की अनाएँ गर्क़ कर दूँ,
मेरे हाथों में गर पतवार आये.
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अगरचे लोग वो सस्ते नहीं थे,
जो बिकने को सर-ए-बाज़ार आये.
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तेरी यादों से छुट्टी कब मिलेगी,
कभी तो ज़ह’न को इतवार आये.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आ. समर सर... अमज़द इस्लाम साहब फ़रमाते हैं ..
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हमें हमारी अनाएँ तबाह कर देंगी
मुकालमे का अगर सिलसिला नहीं करते...
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सादर
इस सुंदर ग़ज़ल के लिए आदरणीय निलेश जो हार्दिक बधाई और समर साहिब की उसपर समीक्षा गज़ब।
वाह आदरणीय समर कबीर साहिब आपकी समीक्षा , आपका शाब्दिक ज्ञान , व्याकरण , आपके इस असीमित ज्ञान दान से कम से कम मैं तो बहुत लाभान्वित होता हूँ। अब ग़ज़ल की समीक्षा में कासिद शब्द के चक्कर में कबूतरों की किस्मों का भी ज्ञान हो गया। नमन नमन सर आपको।
शुक्रिया आ. समर सर ,,,
मेरी post के बहाने आज मंच आपके कबूतरबाज़ी वाले हुनर से भी परिचित हो गया :))))
मैंने दरअसल फ़राज़ साहब की नज़्म सिर्फ चर्चा को आगे बढाने के लिये ही डाली थी ...
वो शेर वैसे भी मैं ख़ारिज कर रहा हूँ और उसकी जगह कुछ और विचार चल रहा है.
आप से विस्तृत मार्गदर्शन मिला इसलिए अभिभूत हूँ ..
सादर
तरमीम का शेर ,,
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उड़े तो थे कई क़ासिद कबूतर,
मेरी छत पर फ़क़त दो चार आये.
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