For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -- ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो ( दिनेश कुमार )

ग़ज़ल की कोशिश
1222--1222--122

ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो
मैं इक आईना हूँ पर्दा-नशीं वो

नदी के दो किनारे कब मिले हैं
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो

इसी दो-राहे की अब ख़ाक हूँ मैं
मेरी बाहों से छूटा था यहीं वो

बग़ैर उसके हुआ बे-जान सा मैं
बदन की रूह था दिल का मकीं वो

मैं जिसकी आँख का तारा रहा हूँ
कहाँ गुम हो गई है दूर-बीं वो

अजल से जिस ख़ुदा की जुस्तजू थी
मिला तुझ को 'दिनेश' अब तक कहीं वो

मौलिक व अप्रकाशित।
दिनेश कुमार।
जिला कैथल। हरियाणा।

गलतियों को ignore मत करें।

Views: 775

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 12, 2017 at 9:38am
इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें आदरणीय
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 8:53pm
जी नहीं ।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:41pm
आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब। हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
Comment by Mohammed Arif on February 10, 2017 at 6:38pm
आदरणीय दिनेश जी आदाब, बहुत बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई कुबूल करें । जनाब समर साहब ने अपनी सटीक इस्लाह से अवगत करवा दिया है ।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:34pm
आदरणीय समर साहब। आपकी मुहब्बतों को दिल से सलाम। तहे दिल से शुक्रिया।
कभी मिलते नहीं दोनों किनारे.... बहुत उम्दा मिसरा सुझाया है सर वाह।
क्या यह मिसरा भी ठीक रहेगा सर...

हमारे दरमियाँ ये फ़ासला... उफ़् !!
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो

सादर।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:30pm
आ. आशुतोष जी। हौसला अफ़ज़ाई के लिय हार्दिक आभार।
शायद आप ठीक कह रहे हैं। पहले आसमाँ रख कर ही मिसरा कहा था। लेकिन कोई अन्य दोष आ गया था। फिर बदल दिया।
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 3:41pm
कभी मिलते नहीं दोनों किनारे'
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 3:40pm
जनाब दिनेश कुमार'दानिश'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'नदी के दो किनारे क़ब मिले हैं
फलक का चाँद हूँ में और ज़मीं वो'

इस शैर के ऊला मिसरे में 'नदी'इसलिये नहीं कह सकते कि सानी मिसरे में 'फलक','चाँद',और ज़मीं की बात है,ऊला मिसरा यूँ ख़ सकते हैं :-
"कभी मिलते नहीं हैं दोनों किनारे
फलक का चाँद हूँ मैं और ज़मीं वो"
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 10, 2017 at 9:42am

आदरणीय भाई दिनेश जी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधायी सादर 

नदी के दो किनारे कब मिले हैं
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो.................इन पंक्तियों पर मैं यह सोच रहा हूँ कि नदी के दोनों किनारे एक जैसे होते है और दूर रहते है फलक और जमी की तुलना भी की जा सकती है चाँद और जमी को दो किनारों जैसा...प्रश्न मेरे मन में था इसलिए आप से साझा कर रहा हूँ ..अन्यथा मत लीजियेगा ..

मैं जिसकी आँख का तारा रहा हूँ
कहाँ गुम हो गई है दूर-बीं वो..............इस शेर के लिए बिशेस रूप से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 9:24am
ज़र्रानवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया आ. गुरप्रीत सिंह जी।
मकीं = मकान में रहने वाला।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

आशीष यादव added a discussion to the group भोजपुरी साहित्य
Thumbnail

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला

दियनवा जरा के बुझावल ना जाला पिरितिया बढ़ा के घटावल ना जाला नजरिया मिलावल भइल आज माहुर खटाई भइल आज…See More
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय सौरभ सर, क्या ही खूब दोहे हैं। विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी प्रदत्त विषय अनुरूप बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . शृंगार

दोहा पंचक. . . . शृंगारबात हुई कुछ इस तरह,  उनसे मेरी यार ।सिरहाने खामोशियाँ, टूटी सौ- सौ बार…See More
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन।प्रदत्त विषय पर सुन्दर प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"बीते तो फिर बीत कर, पल छिन हुए अतीत जो है अपने बीच का, वह जायेगा बीत जीवन की गति बावरी, अकसर दिखी…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे,  ओ यारा, ओ भी क्या दिन थे। ख़बर भोर की घड़ियों से भी पहले मुर्गा…"
Sunday
Ravi Shukla commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी
"आदरणीय गिरिराज जी एक अच्छी गजल आपने पेश की है इसके लिए आपको बहुत-बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश जी ने…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service