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ग़ज़ल -- " दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने " ( दिनेश कुमार )

2122--1212--22

संगे मरमर को आइना जाने
ये ज़माना किसी को क्या जाने

अपनी आँखों में ख़्वाब साहिल का
मौजे तूफ़ाँ की नाख़ुदा जाने

मुझ से बस मयकशी की बात करो
पारसाई की पारसा जाने

पल में तोला है पल में माशा है
कौन इस हुस्न की अदा जाने

चुप रहा जो मेरी सदाओं पर
मेरी ख़ामोशियाँ वो क्या जाने

जब हवाओं की सरपरस्ती थी
फिर दिया क्यों बुझा... ख़ुदा जाने

ज़िन्दगी को ग़ज़ल कहेगा वही
रंजो-ग़म को जो क़ाफ़िया जाने

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2017 at 11:51am

आ. भाई दिनेश जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 3, 2017 at 7:44am
आदरणीय दिनेश भाई,उम्दा गजल के लिए तहेदिल मुबारकबाद आपको!
Comment by Mohammed Arif on February 2, 2017 at 9:41pm
जनाब दिनेश कुमारजी, अच्छी ग़ज़ल के लिए मुबारक़बाद क़ुबूल करें । बाक़ी समर साहब की बात से पूरी तरह से सहमत हूँ ।
Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 6:04pm
जनाब दिनेश कुमार'दानिश'साहिब आदाब,ग़ज़ल अच्छी हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
संग-ए-मरमर को आइना जाने
ये ज़माना किसी को क्या जाने

मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,और ऊला मिसरे में भी ख़ास तौर पर संग-ए-मरमर कहने की क्या ज़रूरत है ?
'क्या है पत्थर ये आइना जाने'

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