For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कोई प्रेम-कथा उतरी है (ग़ज़ल) - मिथिलेश वामनकर

2122 – 1122 – 1122  - 22

 

केश विन्यास की मुखड़े पे घटा उतरी है  

या कि आकाश से व्याकुल सी निशा उतरी है

 

इस तरह आज वो आई मेरे आलिंगन में

जैसे सपनों से कोई प्रेम-कथा उतरी है

 

ऐसे उतरो मेरे कोमल से हृदय में प्रियतम

जैसे कविता की सुहानी सी कला उतरी है

 

मेरे विश्वास के हर घाव की संबल जैसे   

तेरे नयनों से जो पीड़ा की दवा उतरी है

 

पीर ने बुद्धि को कुंदन-सा तपाया होगा

तब कहीं जाके हृदय में भी दया उतरी है

 

पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे

इसलिए विष से भरी प्रेम-सुधा उतरी है

        

आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा

आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है

 

आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन

घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है

 

घर प्रकाशित करो दीपक से, ये आशा छोड़ो

चाँदनी यूं कभी अम्बर से भला उतरी है

 

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं 

फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’  सुता उतरी है

---------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
----------------------------------------------

Views: 1280

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 11:59am

श्रद्धेय शरदिंदु मुखर्जी सर, ये ग़ज़ल आप तक पहुँच गई, मेरा प्रयास सफल हो गया. आप जैसे काव्य मर्मज्ञ से प्रशंसा पाना मेरे लिए बड़ी बात है.  इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद.सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 11:56am

आदरणीय गोपाल सर, आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी प्रशंसा मेरे प्रयास हेतु आश्वस्तकारी है. इस ग़ज़ल को पढ़कर आपको दुष्यंत याद आ गए तो मेरा प्रयास सफल हो गया. इस मुक्तकंठ प्रशंसा से अभिभूत हूँ.  इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 11:50am

आदरणीय समर कबीर जी, आप जैसे उस्ताद से ग़ज़ल पर प्रशंसा पाना मेरे लिए बड़े महत्त्व की बात है. आपको ग़ज़ल पसंद आई, जानकार आश्वस्त हुआ हूँ. इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. आपके मार्गदर्शन अनुसार इस मिसरे //"पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे"// को स्वीकार करते हुए संशोधित करता हूँ. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 11:47am

आदरणीय बृजेश जी, इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 27, 2016 at 11:46am

आदरणीय महेन्द्र जी, इस प्रयास की मुक्त कंठ प्रशंसा पाकर खुश हूँ. इस प्रयास की सराहना व उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on December 27, 2016 at 6:15am
प्रिय मिथिलेश वामनकर जी , बहुत खूबसूरत ग़ज़ल। प्रेम गीत सी शुरू और कहाँ जाकर उत्तरी। इन दो शेरों ने कुछ और गहरा असर छोड़ा है।
आज फिर से किसी शासक ने ठहाका मारा
आज फिर से किसी निर्धन की त्वचा उतरी है.

आजकल पक्ष व प्रतिपक्ष में हैं घर आँगन
घर में दिल्ली की ही विषयुक्त हवा उतरी है.
बहुत बहुत बधाई , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 27, 2016 at 2:37am
आदरणीय मिथिलेश जी, मैं ग़ज़ल नहीं समझता हूँ लेकिन यदि उसमें 'कविता' है तो मेरा अंतस उसकी आवाज़ सुने बिना नहीं रह सकता. आपकी इस रचना ने मुझे रात के इस प्रहर में भी, जब उत्तर भारत की ठिठुरती शीत में सब कम्बल के नीचे गहरी नींद में हैं, मुझे विवश किया अपनी यह प्रतिक्रिया लिपिबद्ध करने के लिए. शायद मेरी बात कहने के लिए इतना ही काफ़ी है - आनंद आ गया! सादर.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 26, 2016 at 9:05pm

आ० मिथिलेश जी  मतले और मकते ने सारी महफ़िल लूट ली . बाकी शेर क्या करें . ऐसी उम्दा हिन्दी गजल  दुष्यंत कुमार की याद दिला गयी .बहुत दिनों तक जेहन में रहेगा

फिर कहीं पर कई शम्बूक के वध निश्चित हैं 

फिर कहीं अग्नि में ‘मिथिलेश’  सुता उतरी है

 बहुत बहुत बधाई

Comment by Samar kabeer on December 26, 2016 at 8:39pm
जनाब मिथिलेश वामनकर साहिब आदाब,बहुत ही सुंदर ग़ज़ल हुई है,बहुत दिन बाद आपने अपने ख़ास रंग की ग़ज़ल से नवाज़ा हर शैर उम्दा और शानदार है, शैर दर शैर दाद के साथ देरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
छटे शैर के ऊला मिसरे की तरफ़ आपकी तवज्जो चाहता हूँ :-

'पाप से आपने दिन रात नहाया होगा'
इस मिसरे में 'आपने'के साथ 'नहाया'शब्द खटक रहा है,और 'दिन रात'शब्द ने यहाँ बहुवचन का वातावरण जो बना दिया है,इसलिये अगर मुनासिब समझें तो इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
"पाप से आप जो दिन रात नहाये होंगे"
बाक़ी शुभ शुभ
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 26, 2016 at 8:37pm
वाह आदरणीय वाह बहुत ही खूबसूरत ग़जल हुई... नमन है लेखनी को..

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
21 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service