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असंतोष की छटपटाहटें समेटते

गहन वेदना की छायाओं में पले

टूटे विश्वास के घाव खुले-के-खुले

न सिले

सिले ओंठ उन घावों की आस्था की

तकलीफ़ भरी पुकार के

मिट्टी के ढेले के उड़ गए कण हों मानो

उन घावों के मैदान से तुम तक अब

कोई आवाज़ तक नहीं आती

आदि से अनन्त हुए

सनातन संघर्षी घावों की आयु है कब से

तुम्हारे संवेदनशील भावों से अनजान

घायल दिन का अस्थि-पंजर समेटे

एक और न गुज़रती रात की अकथनीय पीड़ा ...

दूर, तुम्हारे ख्यालों से भी दूर, अनसुना-सा

रहने का उसका प्रस्ताव संकल्प बन जाता है

पर अगले ही पल ख्यालों में तुम्हारे आने की आहट

गालों पर तुम्हारा वह बरसों पहले का स्नेहिल हाथ

चट्टानी संकल्प काँपता अटकता उलझता

चिलकता है बहुत तब दुखता उदास मन

 -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on November 29, 2016 at 10:47pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीया राजेश जी।
आभार में विलम्ब के लिए क्षमा करें... मुझको ओ बी ओ से most notifications नहीं आ रहीं, अत: अभी आपकी टिप्पणी संयोगवश ही दिख गई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 16, 2016 at 12:10pm

बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति बधाई स्वीकार करें आद० विजय निकोर जी |

Comment by vijay nikore on November 7, 2016 at 2:53am

// अहसासों, संवेदनाओं, दर्द की गहराई को शाब्दिक करती बढ़िया प्रस्तुति //

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी।

Comment by vijay nikore on November 4, 2016 at 1:59pm

रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय समर कबीर जी।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 1, 2016 at 6:30pm
अहसासों, संवेदनाओं, दर्द की गहराई को शाब्दिक करती बढ़िया प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय विजय निकोर जी।
Comment by Samar kabeer on November 1, 2016 at 5:18pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,बढ़िया लगी आपकी रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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