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शब्दों का सैलाब (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

विद्यालय के स्टाफ-रूम में शिक्षकगण लाल-स्याही की परम्परागत औपचारिक रस्म निभा रहे थे। उत्तर-पुस्तिकायें कई तरह से व्यवस्थित या अव्यवस्थित अपनी बारी की प्रतीक्षा में थीं। निर्धारित समय सीमा में उनको जांचने व मूल्यांकन करने का कार्य सम्पन्न करना था।

मानसिक दबाव सहते शिक्षकों में से एक ने कहा- "ये लाल कलम कब थमेगी?कब थमेगा यह सैलाब?"

दूसरे शिक्षक ने कहा- "शब्दों का मेला है, छल्ले डालो जनाब! आइने हैं बच्चों की ये उत्तर-पुस्तिकायें! जागो और जगाओ जनाब!"

तभी प्राचार्य महोदय वहां आ धमके। शिक्षकों को पुनः ताक़ीद करते हुए बोले- "बातें कम, काम ज़्यादा! निर्धारित पाठ्यक्रम समय पर पूरा करके सभी उत्तर-पुस्तिकायें और सतत मूल्यांकन की सभी उत्तर-पुस्तिकायें जांच कर बारी-बारी से मेरे कक्ष में पहुंचायीं जायें मेरे 'ग्रीन साइन' के लिए। किसी के भी काम में कोई कमी नहीं निकलनी चाहिए।"

इतना कहकर प्राचार्य महोदय जब वहां से चले गए, तो एक शिक्षिका ने धीमे स्वर में कहा- "अपनी तो तक़दीर ही ख़राब, बच्चों और प्राचार्य के बीच पिसते हैं! बस क़लम घिसते हैं। बच्चों को कुछ समझ आये, न आये, औपचारिकतायें समय पर पूरी करते हैं!"

"हाँ, यह तो बस शब्दों का सैलाब है, आया और गया, हमने क्या सिखाया-पढ़ाया और बच्चों ने क्या सीखा, इसका भला कोई हिसाब है!"- यह कहते हुए दूसरे शिक्षक ने उत्तर-पुस्तिकाओं का एक बंडल कसकर बाँधा और झुंझलाकर अलमारी में पटक दिया।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 18, 2016 at 4:01pm
इस रचना पटल पर समय देकर अपने विषयांतर्गत अपने विचारों से अवगत कराने व स्नेहिल हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब डॉ. विजय शंकर साहब व आदरणीय राजेन्द्र कुमार दुबे जी।
Comment by Rajendra kumar dubey on August 9, 2016 at 11:33am
वर्तमान शिक्षा पद्धति का वास्तविक चित्रण आपने लघुकथा में किया है आपको हृदय से बधाई आदरणीय उस्मानी जी।
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 8, 2016 at 8:56pm
कथा में व्यक्त व्यथा सही है , पर एक शिक्षक ही हैं जो शिक्षा की भलाई सोचता है और शिक्षा की भलाई कर सकता है ,बाक़ी सब के लिए तो शिक्षा वैसे ही एक विषय / विभाग/ एक आय का जरिया है। तत्काल धन कमा लेने की और बिना अनिवार्य योग्यता के पद और धन अर्जित कर लेने की जो एक परम्परा विकसित हुयी है उसने वैसे भी शिक्षा को हाशिये पर डाल रखा है , वह दिन दूर नहीं जब सब जगह व्यवहारिक ज्ञान वाले ही होंगे, और हर क्षेत्र में विवाद ही विवाद होंगे और नित नये प्रयोग ही प्रयोग होंगे। अतः शिक्षकों से अभी भी बहुत उम्मीदें हैं , बाकी भविष्य तो किसी ने नहीं देखा है।
लघु-कथा के लिए ह्रदय से बधाई, आदरणीय शेख सहजाद उस्मानी जी ,सादर।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 8, 2016 at 8:03pm
मेरी रचना पर समय देकर समीक्षात्मक टिप्पणी द्वारा प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी व आदरणीय आशीष कुमार त्रिवेदी जी।
Comment by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on August 8, 2016 at 11:10am

बहुत सुन्दर कथा. 

Comment by pratibha pande on August 7, 2016 at 1:20pm

कॉपियां जांचने के दबाव में शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों का सही में कितना मूल्यांकन हो पाता है  और  विद्यार्थी कितना लाभान्वित हो पाते हैं ये सत्य तो सब जानते हैं . शिक्षा में सुधार की नीतियां हर दिन बनती हैं  पर शिक्षा सुधार अभी भी बडा प्रश्नचिन्ह है , ..एक सार्थक विषय को लेकर लिखी गई ये रचना प्रभावित करती है ,  आपको हार्दिक बधाई आदरणीय उस्मानी जी  

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 5, 2016 at 11:09pm
वर्तमान शिक्षा पद्धति में वास्तविकता को दरकिनार कर अंधानुकरण भेड़चाल के कारण मात्र 'औपचारिकता' के जाल में फंसे विद्यार्थियों, पालकों और शिक्षकों की मनोदशा/परिस्थितियों पर केन्द्रित कुछ लिखने का मेरा यह प्रयास आपको अच्छा लगा, मेरी लेखनी का उत्साहवर्धन होने के साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ सका। तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम जनाब समर कबीर साहब, मोहतरमा राजेश कुमारी साहिबा, मोहतरमा नयना आरती कानिटकर जी और मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 5, 2016 at 7:31pm
वाह । कमाल का कटाक्ष हुआ है आदरणीय शहज़ाद भाई । हार्दिक बधाई ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 5, 2016 at 7:22pm

बच्चों ,अभिभावकों , मेनेजमेंट और  शिक्षा व्यवस्था के बीच  पिसते   आज के शिक्षकों के अंतर्द्वंद को बखूबी पेश किया है आपने आद० उस्मानी  जी  हार्दिक बधाई |

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on August 5, 2016 at 6:31pm

आ.उस्मानी जी गहरा कटाक्ष कर गये आप औपचारिकताओ पर. बधाई इस रचना के लिए

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