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ग़ज़ल : कभी हुयी थी निसार आंखे कभी बहारे हयात आई

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कभी हुयी थी निसार आंखे कभी बहारे हयात आई

नहीं दिखा फिर मुझे सवेरा सदैव हिस्से में रात आई

 

बहुत बटोरे थे स्वप्न आतुर बहुत सजाये थे ख़्वाब मैंने 

मेरी मुहब्बत मेरी जिदगी विदा हुयी तब बरात आयी

 

घना तिमिर था न रश्मि कोई न सूझ पड़ता था पंथ मुझको

बिना रुके ही मैं अग्रसर था  निदान मंजिल हठात आई  

 

मुझे स्वयं पर रहा भरोसा नहीं जुटाये अनेक साधन

मुझे बनाने मुझे सजाने  कभी-कभी कायनात आयी

 

हृदय हमारा गरीब ब्राह्मण प्रवंचना में बना सुदामा

अधीर कान्हा के आंसुओं से धुले चरण तब परात आयी

 

बखान करता हूँ कृष्ण का मैं कभी रमापति के गीत गाता

हुआ हकीकी है इश्क मुझको कहाँ मजाजी की बात आयी

 

यहाँ तुम्हारी थी गर्म चर्चा, बड़ी अजब आसमाँ की बातें,                                                         

 वहां अचानक विदा हुए तुम खबर बड़ी वाहियात आयी

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 26, 2016 at 7:45pm
आदरणीय गोपाल सर दिल को छू लेने वाली इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें आडर प्रणाम के साथ
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 26, 2016 at 5:58pm

वाहह वाहह बहुत ही खूबसूरत

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