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सत्ता, धर्म और राजनीति (लघुकथा)

घर के मुख्य द्वार पर खाली प्लेट हाथ में लिए मालकिन को काम वाली बाई सन्नो ने आश्चर्य से देखते हुए पूछा:

"सब्ज़ी आज फिर सड़ गई थी क्या?"
"नहीं, पड़ोसी के घर से प्रसाद आया था, हम नहीं खाते उनके धर्म का प्रसाद, सो उस भूखे भिखारी को दे दिया"- मालकिन ने सन्नो से कहा।
सन्नो ने खिड़की से झांककर देखा कि वह भिखारी उसकी प्लेट में परोसा गया वह प्रसाद ज़ल्दी-ज़ल्दी खाने लगा था और कुछ निवाले पास खड़ी मरियल सी कुतिया के पास फेंकता जा रहा था।
"क्यों बाबा कौन से धर्म के हो तुम?" सन्नो ने भिखारी से पूछा।
"बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म भूख ही है, अभी!" - भिखारी ने एक और निवाला कुतिया के सामने डालते हुए कहा और अपना हाथ चाटने लगा पेट की सत्ता अन्न की राजनीति से कुछ तो संतुष्ट हो रही थी।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 4, 2016 at 8:51pm
रचना पर समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। टिप्पणियों में आप सभी के पंचपंक्ति सुझाव से बिलकुल सहमत हूँ। दरअसल मुझे ऐसा लगा कि बतायी गई पंक्ति के साथ पहले ही कई लघुकथायें कही जा चुकी होंगीं, तो इस तरह पंक्ति कहते हुए अंत तक रचना को भिन्नता दी। अन्न व पेट की बात इसलिए ली, क्योंकि अन्न (प्रसाद) दो घरों से होते हुए भूखे भिखारी के पेट तक पहुंचा। मुद्दा केवल भूख का ही नहीं है, प्रसाद की यात्रा और गंतव्य (भूखों का पेट) है जहाँ धर्म का कोई अंतर/भेद नहीं है। किसी भी धर्म के प्रसाद से पेट पूजा होने के बाद भिखारी कहां, कौन से रूप में अपनी ज़रूरत पूरी करता है, निश्चित नहीं! अभी तो यही है अभीष्ट!
Comment by pratibha pande on June 4, 2016 at 8:11pm

  आपकी लेखनी से एक और  लाजवाब प्रस्तुति  //बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म भूख ही है, अभी!"// इसे ही अंतिम पञ्च लाइन बनाना शायद ज्यादा  ठीक होता ....-हार्दिक बधाई आपको इस रचना पर उस्मानी जी  

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 4, 2016 at 7:40am
मेरे इस ब्लोग पोस्ट पर उपस्थित हो कर रचना का अनुमोदन करने व प्रोत्साहन देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया राजेश कुमारी जी।

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Comment by rajesh kumari on June 3, 2016 at 12:47pm

शानदार कटाक्ष किया है आ० उस्मानी जी ,और यही लोग होटलों रेस्टोरेंटों में जाकर खाना बड़े चाव से खाते है वहाँ तो कुक का धर्म नहीं पूछते | बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 2, 2016 at 9:50pm
रचना पर उपस्थित हो कर अपनी राय साझा करते हुए मुझे प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी, आदरणीय राजेन्द्र कुमार दुबे जी व आदरणीया कल्पना भट्ट जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 2, 2016 at 9:49pm
रचना पर समय देकर इंगित पंक्ति पर विचार साझा करने के लिए बहुत बहुत हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री सौरभ पाण्डेय जी व आदरणीया कान्ता राय जी। दरअसल मुझे ऐसा लगा कि बतायी गई पंक्ति के साथ पहले ही कई लघुकथायें कही जा चुकी होंगीं, तो इस तरह पंक्ति कहते हुए अंत तक रचना को भिन्नता दी। अन्न व पेट की बात इसलिए ली, क्योंकि अन्न (प्रसाद) दो घरों से होते हुए भूखे भिखारी के पेट तक पहुंचा। मुद्दा केवल भूख का ही नहीं है, प्रसाद की यात्रा और गंतव्य (भूखों का पेट) है जहाँ धर्म का कोई अंतर/भेद नहीं है। किसी भी धर्म के प्रसाद से पेट पूजा होने के बाद भिखारी कहां, कौन से रूप में अपनी ज़रूरत पूरी करता है, निश्चित नहीं! अभी तो यही है अभीष्ट!
Comment by Sushil Sarna on June 2, 2016 at 7:05pm

''बाई, हमसे पूछ रही हो, या इस कुतिया से? हम दोनों का धर्म भूख ही है, अभी!"

वाह क्या पंच लाईन है आदरणीय उस्मानी साहिब ... इस संदेशात्मक बेहतरीन लघुकथा की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by Rajendra kumar dubey on June 2, 2016 at 5:31pm
आदरणीय उस्मानी जी बहुत ही बेहतरीन लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on June 2, 2016 at 3:24pm

सार्थक सृजन के लिए बधाई आदरणीय शहजाद भाई

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Comment by kanta roy on June 2, 2016 at 10:48am
वाकई में आपकी यह लघुकथा भी बेमिसाल बनी है आदरणीय शहज़ाद जी । आदरणीय सौरभ जी से मै भी सहमत हूँ । कथा को वहीं पर खत्म होना चाहिए था । सार्थक सृजन के लिए बधाई प्रेषित है ।

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