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गिरह (लघुकथा)

"अजी आधी रात होने को है, अब तो खाना खा लोI",
"मैंने कह दिया न कि मुझे भूख नहीं हैI"
"अरे मगर हुआ क्या? दोपहर को भी तुमने कुछ नहीं खायाI"
"बस मन नहीं है खाने का, तुम खा लोI"
दरअसल, कई दिनों से वे बहुत बेचैन थेI पड़ोसी के बेटे ने नया स्कूटर खरीदा था, जिसे देखकर उनके सीने पर साँप लोट रहे थेI घर के आगे खड़ा नया स्कूटर जैसे उन्हें मुँह चिढ़ाता लग रहा थाI उनकी पत्नी तीन चार बार उन्हें खाने के लिए बुला चुकीं थी, किन्तु वे हर बार कोई न कोई बहाना बनाकर टाले जा रहे थेI
कमरे की खिड़की से स्कूटर को देखकर उनकी भृकुटियाँ तन रही थीं, क्रोध से नथुने फूलने लगे, वे अचानक कुढ़कर बड़बड़ाते हुए घर से बाहर निकल गएI
"बाप दादा सारी जिंदगी कैंची-उस्तरा चलाते मर गए, और बेटा साला नवाब बनकर नया स्कूटर लिए घूम रहा हैI"
बाहर अँधेरा था, उन्होंने चारों ओर देखकर खुद को आश्वस्त किया, और फिर उनकी जेब से निकला हुआ तेज़ चाकू स्कूटर की पूरी गद्दी चीरता हुआ निकल गयाI फटी हुई गद्दी देख उनकी आँखों में चमक आ गई जैसे मनों बोझ उनके दिल से उतर गया होI तेज़ी से अपने घर में प्रवेश करते ही उन्होंने पत्नी को आवाज़ दी:
"अब ले आओ खाना भागवान, बहुत ज़ोरों की भूख लगी हैI और हाँ, इस चाकू को अच्छी तरह गंगाजल से धो देनाI"
.
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by गिरिराज भंडारी on January 21, 2016 at 7:26pm

आदरणीय योगराज भाई , जब आचरण को गिरह निर्देशित करे तो यही होता है , और अफसोस की बात ये कि हर किसी के पास किसी न किसी प्रकार की गिरह है , जो उसे निर्धित कर रहा है , कोई इस से अचूता नही है । बहुत बारीक बात कही आपने कथामे । हार्दिक बधाई आपको ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2016 at 9:13pm

आदरणीय योगराज सर, गिरह शीर्षक को सार्थक करती अद्भुत लघुकथा हुई है. हार्दिक बधाई. सादर नमन 

Comment by Nita Kasar on January 20, 2016 at 9:06pm
इशारों इशारों कई निशाने साध लिये गये है ।काश थोड़ा सा गंगाजल अंतरात्मा पर छिड़क लिये होते तो दिल में गिरह ना पलती ।आपकी हर कथा बहुत कुछ सीखा जाती है।आपके लिये बधाईयां आद०योगराज प्रभाकर जी ।
Comment by pratibha pande on January 20, 2016 at 12:11pm

एक तीर से कई शिकार कर दिए आपकी इस रचना ने ,हार्दीक बधाई आपको आदरणीय 

Comment by Samar kabeer on January 19, 2016 at 10:23am
जनाब योगराज प्रभाकर जी आदाब,आपकी लघुकथा से बहुत कुछ सीखने को मिला,बहुत ख़ूब वाह ढेरों बधाई स्वीकार करें |
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2016 at 6:03am

मनुष्य दूसरों की उन्नति औ शुख से किस तरह व्यथित है वतमान सच्चाई को उजागर कटी इस कथा के लिए कोटि कोटि बधाई ...आ० भाई योगराज जी ..

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 18, 2016 at 10:45pm
गिरह खुली, भूख खुली! मुहावरों व शब्दों के सुंदर सटीक उपयोग के साथ कैंची, उस्तरे, स्कूटर, गद्दी, तेज़ चाकू, व गंगाजल के माध्यम से एक से अधिक सार्थक संदेशों को सम्प्रेषित करती बेहतरीन लघुकथा सृजन के लिए बहुत बहुत हार्दिक बधाई आपको आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 18, 2016 at 9:43pm

ओह्ह्ह तो ये डाह की गिरह थी मन में जिसके चलते भूख भी उड़ गई थी क्या गिरह खोली ....

बहुत उम्दा शानदार प्रस्तुति दिल से ढेरों बधाई आ० योगराज जी .

Comment by Sushil Sarna on January 18, 2016 at 7:58pm

"अब ले आओ खाना भागवान, बहुत ज़ोरों की भूख लगी हैI और हाँ, इस चाकू को अच्छी तरह गंगाजल से धो देनाI"वाह आदरणीय योगराज सर इस एक पंच लाईन में आप बहुत कुछ कह गए। मन की कुढ़न को गद्दी पर निकालना फिर चाकू का गंगा जल से धोना जैसे चाकू ने किसी पापी को छू लिया हो। इस सुंदर कसी हुई लघुकथा की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई सर जी।  आपकी प्रस्तुति से सदा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है। लघुकथा का आरम्भ मध्य और अंत बहुत ही सुंदर गठित हुआ है।  हार्दिक बधाई सर। 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 18, 2016 at 5:48pm
//चाकू को गंगाजल से अच्छी तरह धो देना//
लाज़वाब!!धर्मपरायणता के मुखोटे का ज़बरदस्त अनावरण।हार्दिक बधाई पूज्य योगराज सर।

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