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ग़ज़ल :- महल के सामने मिट्टी का घर अच्छा नहीं लगता

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन

सभी कहते हैं मुझको भी 'समर' अच्छा नहीं लगता
महल के सामने मिट्टी का घर अच्छा नहीं लगता

ख़ुदा का दीन सबको अम्न का पैग़ाम देता है
हो बे अमनी ख़ुदा के नाम पर अच्छा नहीं लगता

जो हैं नादान वो इसके लिये लड़ते हैं आपस में
जो दाना हैं उन्हें ये माल-ओ-ज़र अच्छा नहीं लगता

मेरी इस बात की यारों दलील-ए-मुस्तनद ये है
वो मेरे साथ क्यों होते अगर अच्छा नहीं लगता

शरारत और शौख़ी ही भली मालूम होती है
किसी भी फूल के चहरे पे डर अच्छा नहीं लगता

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by gumnaam pithoragarhi on August 29, 2015 at 1:47pm

वाह बहुत खूब सर वाह ,,,,,,,,,, वाकई किसी एक शेर का जिक्र कर बाकियों को अनदेखा नहीं किया जा सकता ,,,,, और मिथिलेश जी बिलकुल सही कहा है ,,,,,,,,,,,,

Comment by मनोज अहसास on August 28, 2015 at 7:47am
नमस्कार सर
एक खूबसूरत ग़ज़ल
बेहद उम्दा
एक सिखावन दे रही है के
ऎसे लिखे
मैं बहुत ख़ामोशी से एक एक बिंदु अपने दिल में रख रहा हूँ
बहुत आभार
सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 27, 2015 at 9:49pm
आदरणीय समर कबीर साब बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए असीम बधाइयाँ
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 27, 2015 at 9:10pm

बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है जनाब समर साहब। किसी एक शे’र को कोट करना बाकियों के साथ नाइंसाफ़ी होगी। शे’र दर शे’र दिली दाद हाज़िर है। 

Comment by Rahul Dangi Panchal on August 26, 2015 at 4:53pm
बहुत सुन्दर गजल हुई आदरणीय
Comment by Ravi Shukla on August 26, 2015 at 1:52pm

आदरणीय समर कबीर साहब कहना न होगा कि आपकी ग़ज़लो की प्रतीक्षा सभी को होती है । आज भी एक अच्छी ग़ज़ल आपने हम सब से साझा की आभार आपका । कुछ दिन पहले के पुरानी पोस्‍ट पढ़ कर उस पर गुणी जनो की इस्‍लाह से हम अपने अभ्‍यास में सुधार की कोशिश करते रहते है । इसी क्रम में मिथिलेश जी के आग्रह को स्‍वीकार करके आपने उनकी ग़ज़ल पर जो इस्‍लाह दी उससे न केवल अादरणीय मिथ्‍ािलेश जी की ग़ज़ल में निखार आया वरन हम सब ने भी उस्‍तादाना इस्‍लाह को समझने को प्रयास किया । आपसे निवेदन है कि आप हम लोगों के लिये ही सही पर अपनी विस्‍तृत टिप्‍पणियां अवश्‍य दिया करें ।

एक बात और अगर गरां न गुजरे आप अपनी प्रोफाइल में अपना चित्र लगा दें तो क्‍या खूब रहे हमें ये अहसास होगा कि आपके अशआर पढ़ नहीं रहे वरन आपसे सुन रहे है  :-) ये एक तिफ्लाना गुजारिश भर है ।

Comment by Harash Mahajan on August 26, 2015 at 1:47pm

आदरणीय समर कबीर जी आदाब !! "अच्छा नहीं लगता" ....इस बेहतरीन रदीफ़ के साथ बहती ग़ज़ल ..क्या कहने सर !!
अहसासों की माने तो आपका ये शेर...
"मेरी इस बात की यारों दलील-ए-मुस्तनद ये है
वो मेरे साथ क्यों होते अगर अच्छा नहीं लगता"

अति सुंदर !! दाद !! वसूल पाइयेगा !! साभार !!

Comment by kanta roy on August 26, 2015 at 1:27pm
महल के सामने मिट्टी का घर ....... वाह !!! बहुत खूब गजल हुई है । बधाई आदरणीय समर कबीर जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 26, 2015 at 12:48pm

आदरणीय समर कबीर जी, आप जब ग़ज़ल कहते है तो मेरी पाठशाला शुरू हो जाती है क्या कमाल के अशआर हुए है. इस लाजवाब ग़ज़ल को पढ़कर नत हूँ. सादर 

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