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ग़ज़ल-नूर कलंदर सी मस्ती में रहता है


22/22/22/22/22/2 (सभी कॉम्बिनेशन्स)
दिल के ओहदेदारों का अब क्या करिये.
बचपन के उन यारों का अब क्या करिये.
.
तुम कब तुम थे- मैं कब मैं, वो कहानी थी
उन मुर्दा क़िरदारों का अब क्या करिये. 

.
राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी 
इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.  
.

मान गए वो आख़िर में जब बात अपनी
पहले के इन्कारों का अब क्या करिये.
.
उसके क़दमों पे धर आए सर ही जब
फिर महँगी दस्तारों का अब क्या करिये.   

हम ही ने सर पर अपने बैठाया है
जमहूरी सरकारों का अब क्या करिये.
.
झूठ को सच औ सच को झूठ बनाते हैं  
डरे बिके अखबारों का अब क्या करिये.
.
सदियों से इंसानी जान की दुश्मन हैं
प्राचीरों मीनारों का अब क्या करिये.
.
अबकी बारिश में घर जाने क्या होगा
उन बूढी दीवारों का अब क्या करिये.
.
अपनों ही ने छोड़ दिया है जब हमको
गलियों का चौबारों का अब क्या करिये.
.
‘नूर’ कलंदर सी मस्ती में रहता है
उस जैसे खुद्दारों का अब क्या करिये.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 13, 2015 at 7:35am

आदरणीय नूर जी बहुत खूबसूरत शेर ...वाह ...बधाई ...सादर  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 13, 2015 at 6:19am
नूर का अंदाज़ निराला
कमाल कमाल कमाल
उम्दा
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 13, 2015 at 12:04am

वाह! आदरणीय निलेश जी. बहुत बेहतरीन गजल कही है. हर शेर तारीफ़ के काबिल हुआ. दिली बधाई कुबुलियेगा

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 12, 2015 at 8:54pm
राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी
इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.
बहुत खूब, बहुत बहुत बधाई, ग़ज़ल नीलेश नूर जी, सादर।
Comment by narendrasinh chauhan on May 12, 2015 at 5:15pm

वाह वाह ,बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल

Comment by Samar kabeer on May 12, 2015 at 3:38pm
जनाब निलेश "नूर" जी,वाह वाह वाह ,बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को , शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाऐं।

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