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सरगम भरता, कल-कल करता, 

झर-झर  झरता  निर्झर  सस्वर I

तम को छलता, पग-पग चलता,

धक्-धक् जलता सूरज सत्वर  II

 

सन-सन बहता, गुम-सुम रहता, 

क्या-कुछ  कहता रह-रह मारुत  I

मह-मह उपवन, बह-बह कर मन,

यह क्या उलझन है रुत अजगुत II

 

छन-छन पायल, तन-मन घायल, 

मन्मथ  मायल  आतुर  बाले !

झन-झन  झनके, कंगन  खनके ,

बोले – ‘प्रिय  हैं  आने  वाले II’

 

थक-थक  नैना,  बुद-बुद  बैना, 

पचि-पचि  रैना,  अंसुवन काटी  I 

डिग-डिग संयम, धिग-धिग प्रियतम,

ढिग-ढिग  बंधन की  परिपाटी II

 

यदि  आ  जाते, रस  सरसाते,   

मधु  बरसाते,  मैं  मदमाती  I

मंदिर  मैय्या   पुहुप  दुनैय्या,   

लावा-लैय्या,  मैं  भर लाती II

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 16, 2015 at 8:05pm

अनुज भंडारी  जी

आपका आभार .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 16, 2015 at 1:56pm

रचना की गेयता अंत तक जाते-जाते बहुगुणी हो जाती है, आदरणीय गोपाल नारायनजी.

हार्दिक धन्यवाद.

सास्वर  शब्द मुझे समझ में नहीं आया.

एक बात,

यदि आपने इस रचना के लिए पादाकुलक शब्द का प्रयोग किया है तो क्या प्रति चरण चार चौकल के अलावा पादाकुलक के अन्य नियम लागू नहीं होने चाहिए?  चौपाई की एक अर्द्धाली क्याभिन्न तुकान्तता की हो सकती है ? फिर इस पादाकुलक ने क्या गुनाह किया है ?

Comment by Shyam Narain Verma on April 16, 2015 at 11:01am

सुंदर भाव लिए, उत्तम रचना के लिए बधाई ....

 सादर 

Comment by shree suneel on April 16, 2015 at 1:06am
यदि आ जाते, रस सरसाते,
मधु बरसाते, मैं मदमाती I
मंदिर मैय्या पुहुप दुनैय्या,
लावा-लैय्या, मैं भर लाती II"
आ0 गोपाल नारायण सर, मुग्ध हूँ इस सुन्दर रचना पर. शब्द-विन्यास.. अहहह!!! बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 15, 2015 at 11:09pm

बहुत सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय ,समान् स्वर के शब्दों का बेहतरीन चयन 

सन-सन बहता, गुम-सुम रहता, 

क्या-कुछ  कहता रह-रह मारुत  I

मह-मह उपवन, बह-बह कर मन,

यह क्या उलझन है रुत अजगुत II   अतिसुन्दर 

वैसे हर बंद सरस है ...बहुत बहुत बधाई आपको 

 

Comment by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 9:57pm

आदरणीय  डॉक्टर गोपाल नारायण सर , बहुत ही शानदार/ जबरदस्त   रचना , हार्दिक बधाई  ! सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 15, 2015 at 8:32pm

अति सुन्दर! मज़ा आ गया!मन आन्नद-विभोर हो गया! अभिनन्दन

Comment by Sushil Sarna on April 15, 2015 at 7:43pm

यदि आ जाते, रस सरसाते,
मधु बरसाते, मैं मदमाती I
मंदिर मैय्या पुहुप दुनैय्या,
लावा-लैय्या, मैं भर लाती II

वाह आदरणीय वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 15, 2015 at 6:36pm
डिग-डिग संयम, धिग-धिग प्रियतम,
ढिग-ढिग बंधन की परिपाटी II
सुन्दर, बहुत ही सुन्दर , आकर्षक, शिक्षाप्रद भी, बहुत बहुत बधाई , आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी , इस प्रस्तुति, पर, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 15, 2015 at 6:30pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , क्या लाजवाब रचना की है , शब्दों का चयन भी बहुत सुन्दर लगा , पढ़ के मज़ा आ गया । आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥

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