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 दशाश्वमेध घाट पर

कुछ उत्तर आधुनिक भारतीय

कर रहे थे स्नान

शैम्पू और विदेशी साबुन के साथ

 

दूर –दूर तक फैलकर झाग

धो रहा था अमृत का मैल

गंगा ने उझक कर देखा

फिर झुका लिया अपना माथ

 

साक्षी तो तुम भी हो

काशी विश्वनाथ !

 

(मौलिक व्  अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 19, 2015 at 12:31pm

आ० हरि प्रकाश जी

आपका अनुगृहीत हूँ i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 19, 2015 at 12:29pm

आ० प्रभा त्रिपाठीजी

आपका हृदय से आभार i

Comment by somesh kumar on February 18, 2015 at 7:29pm

राम तेरी गंगा मैली हो गई |सुंदर व्यंग्य है आपकी कविता में आदरणीय |गंगा की स्थिति पर सार्थक चिंतन |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 18, 2015 at 6:18pm

बहुत ही सुंदर और गम्भीर कटाक्ष, बिलकुल लघुकथा हो जैसे..   :-)) हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय डा.गोपाल जी

Comment by Shyam Narain Verma on February 18, 2015 at 3:20pm
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई 
Comment by Pari M Shlok on February 18, 2015 at 9:42am
दूर –दूर तक फैलकर झाग

धो रहा था अमृत का मैल

गंगा ने उझक कर देखा

फिर झुका लिया अपना माथ
सटीक लिखा आपने ... गंगा की पीड़ा को चंद पंक्तियों में बयान कर दिया
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 18, 2015 at 7:26am
दस पंक्तियों में एक ह्रास का
इतिहास लिख दिया आपने ,
कहाँ पहुँच गए हैं हम ,
उस आज का उपहास
लिख दिया आपने।
कभी शिव ने विषपान किया था ,
आज हम अमृत को धो रहे हैं ,
हम कितनी उन्नति कर रहें हैं ॥
कहाँ थे हम , कहाँ पहुँच रहे हैं ॥
नमन है , आपकी दृष्टि को, पकड़ को , लेखनी को, आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी । सादर।
नोट - यह सिर्फ कविता नहीं है ,
एक अप्रत्याशित वास्तविकता है ,
आज आपको अमृत मिल जाए
तो भी लोग यही कहेंगे ,
उपयोग करने से पहले मेक, [make ]
एक्सपॉयरी देख लेना ,[ expiry ]
सैनिटाइस कर लेना। [ sanitize ]
सादर ,
डॉO विजय शंकर
Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on February 18, 2015 at 6:44am

धो रहा था अमृत का मैल ....सरल शब्दों में गहरी बात ....बधाई 

Comment by khursheed khairadi on February 17, 2015 at 9:39pm

साक्षी तो तुम भी हो

काशी विश्वनाथ !

 आदरणीय गोपल्नारयं सर ,धीर गंभीर और सटीक रचना है ,मन मुग्ध हो गया है | उत्तर आधुनिकता ,पुरातन अमृत का मैल छुड़ाने का दंभ भरती है ,और काशी विश्वनाथ केवल साक्षी भर रहे,गंगा अपना माथ  न झुकाए तो क्या करे |बधाई और सादर अभिनन्दन | 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 17, 2015 at 7:52pm

//दूर –दूर तक फैलकर झाग

धो रहा था अमृत का मैल//

बहुत ही सुन्दर भाव, बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी.

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