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इबादत जहाँ की मोहब्बत सिखाएं......

मोहब्बत क आयो दिया हम जलाएँ
ये नफ़रत के सारे अंधेरे मिटाएँ

हो मंदिर कोई एक ऐसा भी आला
हो इंसानियत का जहाँ पे उजाला
दुआ मिलके माँगें सभी सब की खातिर
इबादत जहाँ की मोहब्बत सिखाएं

वो खवाबों की पारियाँ वो चाँद और सितारें
महज़ हैं कहानी के क़िरदार सारे
क़िताबों के पन्नों से बाहर निकल के
चलो हम हक़ीकत की ग़ज़ल गुनगुनाएँ

यही धर्म कहता है मज़हब सिखाता
सबक देती क़ुरान कहती है गीता
हो पैदा ये अहसास हर इक दिल में
जो गिरता हो उसको गले से लगाएँ

तुम्हें भी पता है , हमें भी खबर है
हो मंदिर या मस्ज़िद ये उसका ही घर है
महज़ सोच का फ़र्क़ है , राह इक है
जो भटकें हुएँ हैं , उन्हे ये बताएँ

अजय कुमार शर्मा
मौलिक & अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 4, 2015 at 1:39pm

तुम्हें भी पता है , हमें भी खबर है
हो मंदिर या मस्ज़िद ये उसका ही घर है
महज़ सोच का फ़र्क़ है , राह इक है
जो भटकें हुएँ हैं , उन्हे ये बताएँ  ----- सत्य वचन , आदरणीय बधाइयाँ ।

Comment by Samar kabeer on February 3, 2015 at 11:00pm
जनाब अजय शर्मा जी ,आदाब,बहुत अच्छी नज़्म पेश की है भाई,मुबारक हो,दाद क़ुबूल करें |
Comment by Hari Prakash Dubey on February 3, 2015 at 8:51pm

आदरणीय अजय कुमार शर्मा जी, इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ! बाकी सभी आदरणीय अग्रजों और अनुजों ने कह ही दिया है ! सादर 

Comment by Sushil Sarna on February 3, 2015 at 3:40pm

आदरणीय सुंदर रचना और सुंदर भाव   .... टंकण दोष के लिए गुणीजनों के कथन से सहमत , इससे प्रवाह में बाधा होती है। कृपया अन्यथा न लेवें। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 3, 2015 at 3:29pm

आदरणीय अजय शर्मा जी सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई. यहाँ मैं आ. विजय शंकर सर और आ. बागी सर की टिप्पणी के हवाले से कहना चाहता हूँ. पहला टंकण त्रुटी रचना के सौदर्य को खराब कर रही है -

मोहब्बत क आयो दिया हम जलाएँ.............. मोहब्बत के आओ दिए हम जलाएँ
ये नफ़रत के सारे अंधेरे मिटाएँ

हो मंदिर कोई एक ऐसा भी आला
हो इंसानियत का जहाँ पे उजाला 
दुआ मिलके माँगें सभी सब की खातिर
इबादत जहाँ की मोहब्बत सिखाएं

वो खवाबों की पारियाँ वो चाँद और सितारें ....... ख्वाबों की परियाँ 
महज़ हैं कहानी के क़िरदार सारे 
क़िताबों के पन्नों से बाहर निकल के 
चलो हम हक़ीकत की ग़ज़ल गुनगुनाएँ

यही धर्म कहता है मज़हब सिखाता 
सबक देती क़ुरान कहती है गीता .... कुरआन से गेयता निखर रही है 
हो पैदा ये अहसास हर इक दिल में
जो गिरता हो उसको गले से लगाएँ

आदरणीय बागी सर की टिप्पणी की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा.  निवेदन है कि साथियों की रचनाओं को अपने कीमती मंतव्य से सिंचित करना चाहेंगे


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 3, 2015 at 10:42am

आदरणीय अजय शर्मा जी एक भावयुक्त रचना प्रस्तुत हुई है, इसके लिए बधाई, जैसा कि आदरणीय डॉ विजय शंकर जी का भी इशारा है, टंकण त्रुटियों पर ध्यान आकृष्ट है, साथ ही निवेदन है कि साथियों की रचनाओं को अपने कीमती मंतव्य से सिंचित करना चाहेंगे.

Comment by khursheed khairadi on February 3, 2015 at 10:36am

हो मंदिर कोई एक ऐसा भी आला
हो इंसानियत का जहाँ पे उजाला 
दुआ मिलके माँगें सभी सब की खातिर
इबादत जहाँ की मोहब्बत सिखाएं

आदरणीय अजय शर्मा जी ,सुन्दर रचना हुई है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 3, 2015 at 10:18am
एक खूबसूरत प्रस्तुति, बधाई , आदरणीय अजय शर्मा जी।
संभवतः टाइप की चूक सुधारना चाहेंगें। सादर।

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