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एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई - लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर '

2122    2122    212

*********************
बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो  गया है  खेत  बंजर क्या करे

***
एक बूढ़ी माँ  अकेली  रह  गई
काटने को  दौड़ता घर क्या करे

***
चाँद  लौटेगा  नहीं   अब,  है  पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे

***
ठोकरें  खाना  खिलाना भाग्य में
राह  का  टूटा वो पत्थर क्या करे

***
रीत  तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे

***
हाथ   आयी   करवटों  की  बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे

***
है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ  यादों  में  बसा  घर क्या करे

रचना - 5 जनवरी 15
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 600

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2015 at 11:40am

ग़ज़ल पर अपनी उपस्थिति   से  ग़ज़ल का मान   बढ़ने   और  उत्साहवर्धन  के लिए सभी आ० प्रबुद्ध जानो का हार्दिक धन्यवाद . समयाभाव    के कारन    व्यक्तिगत तौर पर धन्यवाद ज्ञापित न कर पाने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2015 at 12:32pm

हाथ   आयी   करवटों  की  बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे---जबरदस्त 

सभी शेर एक से बढ़कर एक हैं 

बहुत बहुत बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए 

Comment by aman kumar on January 16, 2015 at 11:02am

एक बूढ़ी माँ  अकेली  रह  गई
काटने को  दौड़ता घर क्या करे,

अगर घर पर है तो भी गनीमत ही है ,आजकल तो आश्रम में ....

दिल तक गयी है रचना ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 15, 2015 at 10:25pm

हाथ   आयी   करवटों  की  बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे -....    बहुत खूब आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़्ल के लिये और इस शेअर के लिये बधाइयाँ ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 15, 2015 at 4:03pm

ठोकरें  खाना  खिलाना भाग्य में
राह  का  टूटा वो पत्थर क्या करे  बिलकुल सही 

रीत  तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे...सच है ...हर शेर उम्दा ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में आनदं आया ..आपको बहुत सारी बधाई सादर 

Comment by khursheed khairadi on January 15, 2015 at 11:49am

चाँद  लौटेगा  नहीं   अब,  है  पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे

***
ठोकरें  खाना  खिलाना भाग्य में
राह  का  टूटा वो पत्थर क्या करे

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर , उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन |

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 15, 2015 at 4:42am
है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ यादों में बसा घर क्या करे।
बहुत ही मार्मिक चित्रण, आदरणीय लक्षमण धामी जी , बधाई, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 9:59pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई। सभी अशआर बेहतरीन है। शेर दर शेर दाद कुबूल फ़रमाये
Comment by gumnaam pithoragarhi on January 14, 2015 at 6:27pm

बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो गया है खेत बंजर क्या करे

***
एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई
काटने को दौड़ता घर क्या करे

वाह सभी शेर अच्छे लगे बधाई

Comment by asha pandey ojha on January 14, 2015 at 4:43pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल 

कृपया ध्यान दे...

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