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ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

१२२२   १२२२   १२२२    १२२२ 

 

मिलो गर ज़िन्दगी से तुम कोई फ़रियाद मत करना

बिठाना बैठना हँस  लेना दिल  नाशाद  मत करना

 

रखो दिल  काबू में  पहली नज़र के प्यार में यारो

जमाना कहता खुद को कैस ओ फरहाद मत करना

 

किताबें मजहबी रहने दो इन अलमारियों में बंद

मिलो जो आदमी से पोथियों को याद मत करना

 

सियासत की फरेबी चाल में फंसकर ऐ लोगो तुम

मुहब्बत चैन अमन को तुम कभी बर्बाद मत करना

 

मैं उधड़े जख्मो की तुरपाई में जीवन ये जीता हूँ

मेरे गम से  खुदा  मुझको  कभी आज़ाद मत करना

 

मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 22, 2014 at 12:41am

आपकी इस प्रस्तुति पर दिली दाद प्रेषित है. सुधीजनों के कहे पर ध्यान देना उचित होगा.

शुभेच्छाएँ.

Comment by Santlal Karun on July 20, 2014 at 7:48am

आदरणीय गुमनाम जी,

ग़ज़ल अच्छी है, हार्दिक साधुवाद, किन्तु राजेश कुमारी जी के सुझाव गौर करने लायक हैं |

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 18, 2014 at 5:04pm
dhnywaad dosto ,,,,,,,,,,,,,,,
Comment by वेदिका on July 18, 2014 at 11:47am
बढ़िया प्रयास हुआ है। जो कहना चाह रही थी जहाँ आ0 राजेश दीदी ने पहले ही कह दिया। संज्ञान करें।
बधाई स्वीकार करें!!
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 17, 2014 at 11:49pm

किताबें मजहबी रहने दो इन अलमारियों में बंद

मिलो जो आदमी से पोथियों को याद मत करना...........वाह! क्या बात कही है आदरनी गुमनाम जी. दिली बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 17, 2014 at 10:10pm

गुमनाम जी ,बहुत अच्छा प्रयास है मतला अच्छा लगा भाव स्पष्ट भी है |दुसरे शेर का भाव सानी में उलझ गया है,यही तीसरे शेर में हुआ उला बहुत जबरदस्त लेकर चले किन्तु सानी में स्पष्ट कम हो गई विशवास है  इन को आप दुरुस्त कर सकते हैं |

सियासत की फरेबी चाल में फंसकर ऐ लोगो तुम

मुहब्बत चैन अमन को तुम कभी बर्बाद मत करना------इसकी तक्तीअ दुबारा कर लीजिये ,भाव बहुत अच्छे तथा स्पष्ट हैं 

अंतिम शेर भी अच्छा है 

आपको बहुत- बहुत बधाई 

 

Comment by gumnaam pithoragarhi on July 17, 2014 at 9:04pm

shukriya dosto ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

Comment by mrs manjari pandey on July 17, 2014 at 7:26pm
किताबें मजहबी रहने दो इन अलमारियों में बंद
मिलो जो आदमी से पोथियों को याद मत करना
आदरणीय गुमनाम जी भावपूर्ण ग़ज़ल के लिए बधाई
Comment by Zaif on July 17, 2014 at 5:05pm
बहुत उम्दा सर ! वाह !!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 17, 2014 at 4:04pm

गुमनाम जी

भाव की बात करे तो सभी अशआर बेहतरीन  i

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