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गजल - शशि पुरवार

जिंदगी जब से सधी होने लगी
जाने क्यूँ उनकी कमी होने लगी

डूब कर हमने जिया है काम को
काम से ही अब ख़ुशी होने लगी

हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी

नेक दिल की बात करते है चतुर
हर कहे अक से बदी होने लगी

चाँद पूनम का खिला जब यूँ लगा
यादें दिल की फिर कली होने लगी


------- शशि पुरवार

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 28, 2014 at 2:14am

सुधीजनों ने अपनी बातें कहीं. आप समुचित ध्यान दें.

शुभकामनाएँ.

Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on March 25, 2014 at 8:43am

अच्छी कोशिश है..मुबारकबाद

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 24, 2014 at 9:12pm

हार्दिक बधाई

Comment by Sarita Bhatia on March 24, 2014 at 10:15am

अच्छा प्रयास शशि जी 

Comment by shashi purwar on March 24, 2014 at 9:57am

आदरणीय वीनस जी आभार आपकी गजल पर प्रतक्रिया सुखद प्रतीत हो रही है।  आभार , आपने जो मार्गदर्शन किया है गजल को दुरुस्त करती हूँ।  बहुत दिनों बाद रुकी कलम को घिसा है , बदलाव करती हूँ और भी कई शेर लिखे है उन्हें भी जोड़ देती हूँ। बहुत बहुत आभार

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 12:45am

यदा अक ... जैसे शब्द भर्ती के प्रतीत हो रहे हैं क्योकि ये अपने वाक्य के साथ सामंजस्य बैठाने में असफल हैं

इता दोष भी दिख रहा है
पूनम का चाँद खिला तो दिल के कली होने का भाव भी कांट्रास्ट पैदा नहीं कर पा रहा है

आपने इससे कहीं अच्छी ग़ज़लें पढवाई हैं,, कई दिन बाद सक्रीय हुआ हों देखता हूँ आपकी वाल पर शायद कुछ और अच्छा पढने को मिले  ....

Comment by shashi purwar on March 23, 2014 at 9:56pm

आदरणीय राजेशकुमारी जी तहे दिल से आभार , गजल पोस्ट करते समय लगा शब्द शायद मिट गया था।  

आभार अदरणीय गणेश जी।  आपने सुधार कर दिया , उस दिन दो बार गजल पोस्ट की एरर आ रहा था ,

आभार आपने गजल की समीक्षा की।

//डूब कर हमने जिया था काम को
काम से ही अब अली होने लगी//
यह शेर कुछ समझ में नहीं आ रहा .……………। आदरणीय इस  शेर में यह कहना चाहा है कि काम को ही पूरी तरह से जिया है डूब कर और काम से ही पहचान होने लगी है। --यहाँ अली की जगह ख़ुशी है।  इसे अभी सुधारते  है

//नेक दिल की बात करते है चतुर -- चतुर की जगह छली लिया था जिसमे दोष था इसीलिए चतुर लेना पड़ा। 
हर कहे अक से बदी होने लगी//

आदरणीय आशीष जी , शकूर जी तहे दिल से आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on March 23, 2014 at 7:05pm

आदरणीया शशिजी ग़ज़ल पे अच्छी कोशिश हुई है बधाई स्वीकार करें

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on March 23, 2014 at 4:12pm

हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी |

बहुत खूब !!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 23, 2014 at 11:59am

//जिंदगी जब से सधी होने लगी
जाने क्यूँ उनकी कमी होने लगी//

वाह वाह, सुन्दर मतला, उला में "लगी" छुट गया था जिसे मैंने ठीक कर दिया है,

//डूब कर हमने जिया था काम को
काम से ही अब अली होने लगी//
यह शेर कुछ समझ में नहीं आ रहा .

//हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी//
अरे वाह,बहुत बढ़िया,अच्छा शेर है .

//नेक दिल की बात करते है चतुर
हर कहे अक से बदी होने लगी//

ठीक है।

//चाँद पूनम का खिला जब यूँ लगा
यादें दिल की फिर कली होने लगी //

यह बढ़िया है, कुल मिलाकर ग़ज़ल पर बढ़िया प्रयास हुआ है, बधाई आदरणीया शशी जी।

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