भोर को निशा बना दे, अंधकार ही घना दे।
हो सके तो श्वांस ना दे, आदमी को आदमी।
लोभ के गुणों को जापे, हर्ष के लिए विलापे।
स्वार्थ में कठोर शापे, आदमी को आदमी।
भाग में रहा बदा है, जोड़ता यदा कदा है।
बांटता चला सदा है, आदमी को आदमी।
शर्म ही बचा सकेगा, धर्म ही उठा सकेगा।
कर्म ही बना सकेगा, आदमी को आदमी।
_____मौलिक/अप्रकाशित______
Comment
भाई संजय हबीबजी, आपकी इस घनाक्षरी के लिए बधाई और शुभकामनाएँ.
इसके प्रवाह पर तनिक और आग्रही होना बनता है.
वैसे कथ्य के हिसाब से आपकी रचनाओं पर कहने के लिए नहीं, बल्कि गुनने के लिए तत्त्व होते हैं.
शुभेच्छाएँ.
सुन्दर प्रवाह व सुन्दर घनाक्षरी आदरणीय मिश्रा जी। ....... हार्दिक बधाई आपको
आदरणीय संजय भाई
संदेश परक घनाक्षरी हेतु हार्दिक बधाई
अदरणीय संजय भाई , लाजवाब छ्न्द रचना हुई है , मज़ा आ गया पढ़ के । आपको हार्दिक बधाइयाँ ॥
सुंदर एवं संदेश परक घनाक्षरी हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारे आ० संजय हबीब जी ।
बहोत सुन्दर .. बधाई आदरणीय संजय जी | सादर
बहुत ही सुन्दर , हार्दिक बधाई आपको ………….. |
आदरणीय हबीब जी
आपकी घनाक्षरी की विशेषता यह है कि आपने इसमें स्वर एवं व्यंजन मैत्री का कुशल निर्वाह किया है i
एतदर्थ आपको बधाई i
शर्म ही बचा सकेगा, धर्म ही उठा सकेगा।
कर्म ही बना सकेगा, आदमी को आदमी।..aameen!
शर्म ही बचा सकेगा, धर्म ही उठा सकेगा।
कर्म ही बना सकेगा, आदमी को आदमी।-----बहुत सुन्दर सार्थक बात कही है ,शानदार घनाक्षरी हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय संजय हबीब जी
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