“सर! निगम के सी. ई. ओ. के घोटालों की पूरी रिपोर्ट मैंने फायनल कर दी है। प्रिंट में जाये उससे पहले आप एक नज़र डाल लीजिए...” एडिटर इन चीफ ने रिपोर्ट पर सरसरी निगाह डाली और लापरवाही से उसे टेबल के किनारे रखे ट्रे पर डालते हुये कहा – “इसे छोड़ो, इस केस में कुछ नए डेवलपमेंट्स पता चले हैं... उन सब को एड करके बाद में देखेंगे... बल्कि तुम ऐसा करो कि नए आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित रिपोर्ट को जल्दी से फायनल कर दो, उसे कल के एडिशन में देना है...”
वह अपने चेम्बर में बैठ कर आर॰ टी॰ ओ॰ से संबन्धित डाक्यूमेंट्स को पढ़ ही रहा था कि खिड़की से देखा काले रंग कि चमचमाती सफारी में से सी. ई. ओ. साहब उतरे, एडिटर इन चीफ से हाथ मिलाया और फिर सफारी उन दोनों को लेकर आँखों से ओझल हो गई...
______मौलिक/अप्रकाशित_______
Comment
जो है सो यही है.. . सफ़ारी हो या ऑडी या कोई ऐसी ही गाड़ी, बहुत कुछ ढोती हैं.
आजकी विडम्बना सहज तरीके से अभिव्यक्त हो गयी है. बधाई
आदरणीय संजय जी,
एक ऎसी कड़वी सच्चाई जिसके बारे में अब सभी को पता है. बडे़ बडे़ मीडिया घरानो के आगे बढ़ने का एक कारण है. पहले व्यवसायी समाचार पत्र के प्रकाशन में आते थे. अब कोइ मीडिया घराना बाद में बिजनेस टाइकुन बन जाता है...
सुन्दर कथा.
सादर.
उत्साहवर्धन हेतु सभी सम्माननीय मित्रों का सादर आभार...
आदरणीय संजय मिश्रा जी
एक सशक्त लघुकथा.
यह लघु कथा दो तथ्यों को स्पष्टतः प्रस्तुत करती है : पहला- प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह को ..और दूसरा कितना आसान होता है घोटाला करने वालों का बच निकलना...
इस यथार्थ समाज में व्याप्त असामाजिक स्थितियों को सुगढ़ता ये शब्दबद्ध करती लघुकथा पर हार्दिक बधाई.
शायद! आजकल यही सब हो रहा है, सफ़ेद सच को किनारे रखी ट्रे में डालकर, काले झूठ के साथ ओझल हो जाना, बहुत बढ़िया लघुकथा बधाई स्वीकारें आदरणीय संजय जी
अबीब जी
अर्थपूर्ण लघुकथा के लिए बधाई i
ऐसा ही होता.मौसी बेटे...सब भाई भाई.सादर
आदरणीय संजय जी ..लघु कथा के माध्यम से आपने जबरदस्त कटाक्ष किया है ...आपकी इस रचना पर हार्दिक बधाई के साथ ..सादर
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