चार मुक्तक
1.
झुकाना पड़े सिर मां को ऐसा कारोबार मत कीजिये,
अपने लहू से जिसने पाला उसे लाचार मत कीजिये,
कर सको तो करो ऐसा काम जगत में कि गर्व हो तुम पर,
कोख मां की हो जाये लज्जित ऐसा व्यवहार मत कीजिये,
2.
बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,
एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,
बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,
नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।
3.
हर बात की अपनी करामात होती है,
कभी ये हंसाती तो कभी रुलाती है,
बात कीजिये हमेशा संभल संभल कर,
चुभ जाये तो ये घाव गहरा करती है।
4.
भरी हो जेबें तो जगमग दिवाली सी लगती है जिन्दगी,
पैसा न हो पास तो खाली खाली सी लगती है जिन्दगी,
भूख और बदहाली का जीवन भी कोई जीवन है भला,
जीवन में मिले प्यार तो मस्त प्याली सी लगती है जिन्दगी।
- दयाराम मेठानी
(मौलिक / अप्रकाशित)
Comment
हर बात की अपनी करामात होती है,
कभी ये हंसाती तो कभी रुलाती है,
बात कीजिये हमेशा संभल संभल कर,
चुभ जाये तो ये घाव गहरा करती है।.....शानदार मुक्तक ..ढेरों बधाई स्वीकार करें
सुन्दर मुक्तक !!!!हार्दिक बधाई.
आदरणीय दयाराम सर बढ़िया मुक्तक हैं बधाई स्वीकारें
आदरणीय विजय मिश्र जी, शिज्जू शकूर जी, केडिया चिराग जी एवं गिरिराज भंडारी जीं आप सबकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिला। बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार।
- दयाराम मेठानी
//बरस बीत जाते है किसी के दिल में जगह पाने में,
एक गलत फहमी देर नहीं लगाती साथ छुड़ाने में,
बहुत नाजुक होती है मानवीय रिश्तों की डोर यहां,
नफरत में देर नहीं लगाते लोग पत्थर उठाने में।// बहुत बढ़िया आदरणीय दयाराम सर सार्थक मुक्तक है
लाजबाब ..लाजबाब ...ऐसी अद्भुत रचनायें नए कवियों को हमेशा लिखने को प्रेरित करेंगी .....
आदरणीय दयाराम भाई , सुन्दर , सार्थक मुक्तक के लिये आपको बधाई !!!!
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