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लघुकथा : दरवाज़ा बोलता है

  •  दरवाज़ा बोलता है

 

                       मेरी पड़ोसन  सखी आई थीं। छुट्टी का  दिन।  .हम आराम फरमा  रहे थे।  प्रायः ऐसे ही टाइमपास किया करते थे। कुछ इधर उधर की बातें भी चल रही थीं। चाय की चुस्की लेते लेते मैडम अचानक रूक गयीं - अरे ! ये आवाज़ कैसी आ रही है? मैंने कहा हवा से पल्ला हिला  उसकी आवाज़ थी। फिर कुछ ही देर  में भड -भड की हलकी आवाज़। बोलीं अब क्या बोला ? मैंने कहा बाहर का दरवाज़ा। हवा थोड़ी तेज़ हुई होगी। कहती हैं धन्य हैं आप। ये नहीं कि  बंद कर दें। बोले ही न।   डर  नहीं  लगता ? मैंने कहा - किस बात का ? अरे ये  आवाजें ही तो मेरी तन्हाई की साथी हैं। बहुत कुछ ये बताती भी हैं। कमरे का दरवाज़ा चरमर  करता है तो समझ जाती हूँ हवा चलने लगी . खिड़की के परदे  जिस गति से हिलते हैं तो समझ जाती हूँ बाहर हवा तेज़ अथवा धीमी है। आँगन से लगा दरवाज़ा और और बाहर का भी भड -भाड़ाने  लगता है तो यह हवा का तीव्र वेग दर्शाता है साथ ही यह संकेत भी होता है कि  अब मै  दरवाज़े को विराम दूँ  . यानि बंद कर दूं।इसी तरह .......

बीच में मेरी बात को काटते  हुए बोलीं बस कीजिये बस। मान गए। आपका दरवाज़ा बोलता है। हम  दोनों ही हंस पड़े।

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Comment

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Comment by vijay nikore on March 6, 2013 at 11:36pm

आदरणीया मन्जरी जी:

 

गत ५ सप्ताह से सफ़र पर होने के कारण कई अच्छी रचनाएँ पढ़ने से रह गईं।

अभी-अभी आपकी यह लघु कथा पढ़ी, अच्छी लगी।

 

नीरवता में हमें अपने अन्तरतम का कितना आभास होता है, कि जैसे हम स्वयं से दूर थे,

और अब उसी स्वयं को छू लेते हैं ... उसी तरह सन्नाटे को भंग करती आवाज़ भी हमें अपने

मर्म से पहचान कराती है, यदि हम उसे समझने का पर्यत्न करें तो।

 

अच्छी लघु कथा के लिए बधाई।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by सतवीर वर्मा 'बिरकाळी' on February 27, 2013 at 5:58pm
तन्हाई मिटाने का अच्छा सहारा ढूँढा आपने। अति सुन्दर रचना, धन्यवाद।
Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on February 26, 2013 at 11:28pm

तन्हाई काटने को न दौड़े ऐसे ही कोई बोले डोले मन मे रस घोले तो नीरसता भागे
सुंदर लघु कथा
भ्रमर ५

Comment by ajay yadav on February 19, 2013 at 11:15pm

दरवाजा बोलता हैं ,बहुत सुंदर लघुकथा हैं ,बधाई

Comment by Rekha Joshi on February 19, 2013 at 1:02pm

 मंजरी पांडे जी,.सुन्दर लघुकथा. बधाई..

Comment by Dr.Ajay Khare on February 19, 2013 at 12:24pm

aapka darbaja bolta hai mousam ke badalte mijaj ke raaj kholta hai badia racna pandey mam badhai


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 19, 2013 at 11:42am

वाह मंजरी जी तन्हाई  में किस तरह जड़ अवचेतन वस्तुएँ भी हमे अपने होने का एहसास दिलाती हैं या  यूँ कहिये हम खामोशी से बातें करने लगते हैं इस मर्म को बड़ी सरलता से इस लघु कथा के माध्यम से कह दिया बहुत बधाई आपको  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 18, 2013 at 8:05pm

तन्हाई में सिर्फ़ दरवाज़ा ही नहीं बहुत कुछ बोलता है. हम भी बोलते हैं.. . हम उनसे बोलते हैं और बहुत खूब बोलते हैं जिनके कारण तन्हाइयाँ हुआ करती हैं.

इस सांकेतिक कथा को जिस बेलौस अंदाज़ में आपने साझा किया है, आदरणीया मंजरी जी, वह आपकी संवेदनशीलता के बड़े प्रखर पहलू को सामने लाता है.  आपकी इस कथा के लिए आपको हृदय से बधाई व शुभकामनाएँ

Comment by Abhinav Arun on February 18, 2013 at 3:35pm

सच कहा अगर हमें सुनने की फुर्सत और ख़याल हो तो हर चीज़ बोलती है और हमसे बतियाती भी है 
! इस सुन्दर सशक्त रचना के लिए दिली मुबारकबाद !!

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on February 18, 2013 at 7:48am

आदरणीया मंजरी पांडे जी सादर, सही है तन्हाइयों के खामोशियाँ भी बोलती है.सुन्दर लघुकथा. बधाई.

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