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राहबर जब हवा हो गई
नाव ही नाखुदा हो गई

प्रेम का रोग मुझको लगा
और दारू दवा हो गई

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई

लड़ते लड़ते ये बुज़दिल नज़र
एक दिन सूरमा हो गई

जब सड़क पर बनी अल्पना
तो महज टोटका हो गई

माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 11:23pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by vijay nikore on February 3, 2013 at 9:54am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी:

इतनी अच्छी गज़ल पता नहीं कैसे पढ़ने से रह गई...

सरल शब्दों में कितना-कुछ कह दिया है आपने!

ढेर बधाई।

विजय निकोर

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 17, 2013 at 10:50am

बहुत बहुत शुक्रिया सौरभ जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 17, 2013 at 10:49am

बागी जी बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 16, 2013 at 8:07pm

इन दो शेर पर विशेष बधाई, धर्मेन्द्रजी -

जा गिरी गेसुओं में तेरे
बूँद फिर से घटा हो गई

चाय क्या मिल गई रात में
नींद हमसे खफ़ा हो गई 

दोनों शेर विशेष मनोदशा के सूचक हैं. पुनः बधाई.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 13, 2013 at 11:03am

//माँ ने जादू का टीका जड़ा
बद्दुआ भी दुआ हो गई//

यह शेर बहुत ही पसंद आया, छोटी बहर में अच्छी ग़ज़ल कही है भाई धर्मेन्द्र जी, दाद कुबूल करें ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 12, 2013 at 1:48pm

शुक्रिया अरुन शर्मा "अनन्त" जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on January 12, 2013 at 11:38am

आदरणीय धर्मेन्द्र जी छोटी बहर में लाजवाब ग़ज़ल कह डाली आपने, दिली दाद हार्दिक बधाई .

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 11, 2013 at 11:19pm

बहुत बहुत शुक्रिया  rajesh kumari जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 11, 2013 at 8:44pm

जा गिरी गेसुओं में तेरे

बूँद फिर से घटा हो गई-----वाह वाह क्या कहने इस शेर के 

 

चाय क्या मिल गई रात में

नींद हमसे खफ़ा हो गई-----सच में रात  में चाय  पीना ठीक नहीं ,बहुत बढ़िया शेर ,इस छोटी बहर  की खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दाद कबूल करें 

 

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