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पूछा मैंने पानी से 

क्यूँ 

सबको गीला कर देता है

पानी बोला 

प्यार किया है

ख़ुद से भी ज़्यादा औरों से

इसीलिये चिपका रह जाता हूँ

मैं अपनों से

गैरों से

हो जाता है गीला-गीला

जो भी  मुझको छू लेता है

अगर ठान लेता 

मैं दिल में 

पारे जैसा बन सकता था

ख़ुद में ही खोया रहता तो

किसको गीला कर सकता था?

पारा बाहर से चमचम पर

विष अन्दर-अन्दर सेता है 

वो तो अच्छा है 

धरती पर

नाममात्र को ही पारा है

बंद पड़ा है बोत में वो 

अपना तो ये जग सारा है

मेरा गीलापन ही है जो

जीवन की नैय्या खेता है

---

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 22, 2021 at 4:57pm

जनाब धर्मेन्द्र कुमार जी आदाब, अच्छा नवगीत सृजित किया है आपने, बधाई स्वीकार करें। टंकण त्रुटि देख लें।  सादर। 

Comment by Samar kabeer on December 22, 2021 at 2:48pm

जनाब धर्मेन्द्र कुमार जी आदाब, अच्छा नवगीत है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

'बंद पड़ा है बोलत में वो -

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 20, 2021 at 9:51am

आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। सुन्दर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई।

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