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1
दिल का रिश्ता यूँ भी निभाना था
फिर से रूठा ख़ुदा मनाना था
2
चार ईंटें टिका के निस्बत की
आदमीयत का घर बसाना था
3
हम वही शाख़ काट बैठे हैं
जिस प अपना भी आशियाना था
4
छोड़ कर गाँव शह्र में उसने
ढूँढना फिर से आब ओ दाना था
5
उसका बेख़ौफ़ होना कहता है
रखता अंदाज़ काफ़िराना था
6
बाद मुद्दत के जान पाए हम
दिल भी उसके लिए खिलौना था
7
क्यों उसी वक़्त आ गये आँसू
जिस घड़ी हमको मुस्कुराना था
8
खेलकर बाज़ी इश्क़ की 'निर्मल'
अपनी किस्मत को आज़माना था
मौलिक व अप्रकाशित
रचना निर्मल
Comment
आद0 रचना भाटिया जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। आद0 समर साहब की इस्लाह से और निखर गयी। बधाई निवेदित करता हूँ।
वाह उम्दा ग़ज़ल हुई आदरणीया...
आ. रचना बहन , सादर अभिवादन। सुन्दर गजल हुई है। हार्दिक बधाई। आ. भाई समर जी की सलाह से यह और बेहतर हो जायेगी
आदरणीय दण्डपाणि नाहक जी हौसला बढ़ाने के लिए आभार।
आदरणीय समर कबीर सर् नमस्कार। सर्, आपने मतला बहुत ख़ूब कर दिया। आभार।
बाकी आपके द्वारा बताए गई इस्लाह के अनुसार सुधार कर के आपको दिखाती हूँ।
सादर।
मुह्तरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें I
'फिर से रूठा ख़ुदा मनाना था'
इस मिसरे को यूँ कह सकती हैं :-
' हमको रूठा ख़ुदा मनाना था '
'छोड़ कर गाँव शह्र में उसने
ढूँढना फिर से आब ओ दाना था '
इस शे`र का भाव स्पष्ट नहीं हुआ ' देखें I
'उसका बेख़ौफ़ होना कहता है
रखता अंदाज़ काफ़िराना था'
इस शै`र के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है' देखें I
'बाद मुद्दत के जान पाए हम
दिल भी उसके लिए खिलौना था '
इस शे`र में क़ाफ़िया दोष है, देखें I
'अपनी किस्मत को आज़माना था'
किस्मत ----"क़िस्मत"
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