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मैं जहाँ  पर खड़ा हूँ वहाँ से हर मोड़ दिखता है

इस जहाँ से उस जहाँ का हरेक छोड़ दिखता है

ये वो किनारा है जहां सब खत्म हुआ समझो

सभी भावनाओं का जैसे अब अंत हुआ समझो

             

दर्द मुझे है बहूत मगर अब उसका कोई इलाज नहीं

मैं ना लगूँ  खुश मगर, मैं किसी से नाराज़ नहीं

मैंने देखा है खुद को उसकी आँखों मे कई दफा मरते हुए

उसने ये सब सहा है, हर बार मगर हँसते हुए

        

बच्चे छोटे है मेरे बस यही उसकी मजबूरी है

मुझे वो खोजते है हरदम, उनसे सही जाती ना ये दूरी है

आज नहीं तो कल मुझको मौत तो आनी ही है

है सभी को अब बताना जो मेरी अनसुनी कहानी है

                          

ये है वो रास्ता के इसपर जब भी जो भी चला है

अंतिम सफर के मंज़िल से अंत मे वो जा मिला है

कैद है हर एक इंसान जैसे अपने ही बदन मे

जाने कब गूम हो जाए ये खुद के इस चमन मे

"मौलिक व अप्रकाशित"

अमन सिन्हा 

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Comment by AMAN SINHA on May 14, 2020 at 2:26pm

अदरणीय लक्ष्मण धामी जी एवं समर कबीर साहब,

हौसला बढ़ाने के लिए असंख्य धन्यवाद। मैंने तो बस अभी अभी लिखना शुरू किया है। 

आपको अच्छी लगी इससे मुझे लिखने की प्रेरणा मिलेगी। 

कोशिस करूंगा और बेहतर लिख सकूँगा। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 14, 2020 at 6:11am

आ. अमन जी, अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on May 13, 2020 at 11:48am

जनाब अमन सिंहा जी आदाब,अच्छी कविता है, बधाई स्वीकार करें ।

कृपया ध्यान दे...

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