मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२
दूध को जो दूध और पानी को पानी लिख रहे हैं
लोग वो कम ही बचे जो हक़बयानी लिख रहे हैं
खेत में ओले पड़े हैं नष्ट सब कुछ हो चुका है
कूल है मौसम बहुत वे ऋतु सुहानी लिख रहे हैं
बस्तियाँ सुनसान हैं अब चुभ रहीं तीखी हवाएँ
सूने-सूने घर महकती रातरानी लिख रहे हैं
आस में अच्छे दिनों की गाँव छोड़ा था जिन्होंने
रोज रोटी नोन लकड़ी की कहानी लिख रहे हैं
मानिए मत मानिए पर आज हम अपने हृदय को
आपके कोमल हृदय की राजधानी लिख रहे हैं
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय श्री सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी सादर नमस्कार , आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आद0 बसन्त कुमार शर्मा जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये।
आदरणीय सालिक गणवीर जी सादर नमस्कार, आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी सादर नमस्कार, आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर 'जी सादर नमस्कार, आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी सादर नमस्कार, आपकी हौसलाअफजाई के लिए दिल से शुक्रिया
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी सादर अभिवादन आपकी गजल यथार्थ को समाहित किये हुए बेहतरीन भावों को उजागर कर रही है ,पढ़कर मन खुश हो गया ,बहुत बहुत बधाई
आ. भाई बसंत कुमार जी, सादर अभिवादन । एक उम्दा गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी। बेहतरीन गज़ल।
आस में अच्छे दिनों की गाँव छोड़ा था जिन्होंने
रोज रोटी नोन लकड़ी की कहानी लिख रहे हैं
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