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हार का अहसास उसको खा गया- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122   2122    212


जीतने की जिस किसी ने ठान ली
मंजिलों की राह खुद पहचान ली ।1।


हार का अहसास उसको खा गया
पूछ मत अब ये कि क्यों कर जान ली।2।


है वचन शीशा न कोई टूटेगा
पत्थरों की बात चाहे मान ली ।3।


कोयलों ने होंठ अपने सी लिये
झुंड में आ मेंढकों ने तान ली ।4।


भ्रष्ट जब सारी सियासत है यहाँ
क्या है कैसे कितनी राशी दान ली।5। 

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 26, 2017 at 11:00am

आ. राजेश दी, सादर अभिवादन । स्नेह व मार्गदर्शन के लिए आभार ।


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Comment by rajesh kumari on December 25, 2017 at 8:41am

वाह बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आद० लक्ष्मण धामी भैया बहुत बहुत बधाई

है वचन शीशा न कोई टूटेगा-----है वचन शीशा न  टूटेगा कोई ----कर सकते हैं 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2017 at 5:32am

आ. भाई अजय जी, उत्साहवर्धन के लिए आभार । आपकी सलाह बेहतरीन है ,इसके लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2017 at 5:28am

आ. भाई बृजेश जी, उपस्थिति और स्नेह के लिए धन्यवाद।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2017 at 5:26am

आ. भाई कालीपद जी, स्नेहपूर्ण प्रतिक्रिया के लिए आभार।

Comment by Ajay Tiwari on December 23, 2017 at 8:41pm

आदरणीय लक्ष्मण जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई.

आखिरी शेर के लिए एक विकल्प ये भी हो सकता है :

भ्रष्ट अब सारी सियासत है यहाँ
राशियाँ भरपूर सबने दान ली

सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 23, 2017 at 8:23pm

वाह आदरणीय बहुत ही खूब ग़ज़ल कही सादर

Comment by Kalipad Prasad Mandal on December 23, 2017 at 8:00pm

आ भाई लक्षण धामी जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है \हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2017 at 9:25am

आ. नीलम जी, प्रशंसा के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 23, 2017 at 9:24am

आ. भाइ आरिफ जी, स्नेह व उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद।

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