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शराफत रास दुनिया को कहां आती है कहिए भी-ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222

वो दिन बेहतर थे जो गुजरे मेरे आवारगी में ही
शराफ़त रास दुनिया को कहाँ आती है कहिये भी

जला डाले सभी सपने ये दुनिया तो सितमगर है
कहाँ पहले कभी बिखरी थी मन पे रात की स्याही

न अब मासूमियत बाक़ी न अब बेफ़िक्री का मौसम
सहर आते थमा देती पिटारी जिम्मेदारी की

न जाने ढूँढता है क्या किधर को जा रहा है मन
भला क्यूँ रास आती ही नहीं दुनिया की ये क्यारी

गज़ब इंसानियत बदली फ़िदा है बस दिखावे पर
नज़र हर आंकती कीमत हुआ हर शख्स व्यापारी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 5, 2017 at 8:39am
आदरणीय गोपाल जी सर बहुत बहुत आभार और सादर प्रणाम
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 5, 2017 at 8:38am
आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 5, 2017 at 8:37am
आदरणीय मिथिलेश सर, जिम्मेदारी की मात्रा गिराने के प्रति मैं संशय ग्रस्त हूँ, लेकिन एक बात ज़रूर है कि इसे मैं लय में पढ़ पा रहा हूँ।।
Comment by Mahendra Kumar on January 4, 2017 at 10:37pm
आदरणीय पंकज जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। मेरी तरफ से बहुत-बहुत बधाई। सादर।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 4, 2017 at 9:58pm
वाह बहुत ही शानदार
Comment by Samar kabeer on January 4, 2017 at 9:09pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
Comment by Sushil Sarna on January 4, 2017 at 8:38pm

गज़ब इंसानियत बदली फ़िदा है बस दिखावे पर
नज़र हर आंकती कीमत हुआ हर शख्स व्यापारी

वाह आदरणीय क्या बात है ... इस खूबसूरत अहसासों की ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 4, 2017 at 8:27pm

गैर मुरद्दफ़ बढ़िया गजल हुयी है .

Comment by Mohammed Arif on January 4, 2017 at 5:11pm
आदरणीय पंकज कुमारजी, वर्तमान जीवन के चरित्र का पर्दाफाश करती ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 4, 2017 at 3:50pm

आदरणीय पंकज जी, क्षमा कीजियेगा मेरा प्रश्न गलत था. सही प्रश्न पुनः .... क्या इस बह्र में जिम्मेदारी शब्द फिट बैठेगा. क्या जिम्मेदारी में 'मे' की मात्रा गिराई जा सकती है?

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