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निगाहें भला क्यूँ मिलाते नहीं हो।
मनस पृष्ठ मुझको पढ़ाते नहीं हो।।
छिपाते हो तुम राज अपने जिया के।
बताओ मुझे क्यों बताते नहीं हो।।
हैं चेहरे पे क्यों ये उदासी की पर्तें।
भला नूर क्यूँ तुम दिखाते नहीं हो।।
सघन वेदना के जो घन हैं हृदय में।
भला फिर क्यूँ दरिया बहाते नहीं हो।।
मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है।
सिवा इसके तुम मुस्कुराते नहीं हो।।
है 'पंकज'का नाता अगर नीर ही से।
तो नैनों में काहें खिलाते नहीं हो।।
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मौलिक एवम् अप्रकाशित
Comment
आदरणय पंकज जी बधाई स्वीकार करें इस गजल के लिये । हमारी व्यक्ति गत सोच के अनुसार जब हिन्दी भाषा में आपके विचार इतने सुन्दर तरीके से व्यक्त हो रहे है तो इनके साथ दूसरी भाषा के शब्दों को घालमेल रस अनुभूति में बाधा उत्पन्न कर रहे हे इसी प्रकार उर्दू भाषा में कोई गजल हो तो उसमें हिंदी के शब्द यही प्रभाव पैदा करते है । भाषाई संस्कृति पर हमारी किसी से कोई कोई बहस नहीं है हम जानते और मानते है दोनो ही भाषाओ में इस विधा पर बहुत अच्छा काम हुआ है और हो रहा है यह श्ुाभ संकेत है ।
आपके मतले में प्रथम अक्षर ही निगाहे है और बाकी मिसरा और सानी शुद्ध हिन्दी में
इसी तरह
सघन वेदना के जो घन हैं हृदय में कितना सुन्दर भाषाई सौन्दर्य है इस वाक्य मे और इसी शेर के सानी में दरिया शब्द इसी प्रकार रस में बाधक लगा हमें ।
आपसे और मंच से अपनी बात साझा की है ताकि शायद इस पर कुछ और चर्चा हो । आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे । हां आपकी गजल के बारे में तो पहले ही कह चुके है अच्छी गजल है पुन: बधाई । सादर
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