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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६८

2122 1122 1122 22

 

जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना

दौड़ता है मेरी नस नस में लहू दीवाना //१

 

एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार तेरे 

जाने किस किस को बनाए तेरी खू दीवाना //२

 

इश्क़ में हारके वो सारा जहाँ आया है

इसलिए अश्कों से करता है वजू दीवाना //३

 

लोग आते हैं चले जाते हैं सायों की तरह

क्या करे बस्ती का भी होके ये कू दीवाना //४

चन्द लम्हों में ही हालात बदल जाते थे

मेरे नज़दीक जो आता था अदू दीवाना //५

 

कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों पे तलातुम के सबब 

मौजे दरिया को बना देती है जू दीवाना //६

 

क्यों बनाता नहीं तू जलवानुमाई से मुझे

मुझको कपड़ों से बनाता है रफ़ू दीवाना //७

 

तुझको आएगा मेरे जैसे दिवानों पे तरस

तू भी होगा जो मुहब्बत में कभू दीवाना //८

 

मुझमें लैला को भी मजनूँ का भरम होता है 

यूँ दिखे है मेरा हुलिया, मेरा मू दीवाना //9  

 

दौर ये लैला ओ मजनूँ की मुहब्बत का नहीं

तूने क्या सोचा था, क्यों हो गया तू दीवाना? //१०

 

मुझको दरकार नहीं तश्नगी ये दुनिया की

मैं तो रहता हूँ पये इशरते हू दीवाना //११

 

ताब आँखों की तेरी आग लगा देती है

यूँ रगों में नहीं दौड़े है लहू दीवाना //१२

 

'राज़' ये शह्र है, मजनूँ का बियाबाँ तो नहीं

लाख मिल जाएं जो खोजे यहाँ तू दीवाना //१३

 

~ राज़ नवादवी

 

“मौलिक एवं अप्रकाशित”

 

क़ुर्ब- सामीप्य; कफ़े पा- तलवा; फ़ुरक़त- जुदाई; कू- गली; कता- विच्छेद; अदू- दुश्मन, प्रतिद्वंदी; जू- नदी, चश्मा, स्रोत; मू- बाल; शुआ- किरण; खल्क- दुनिया; क़ल्ब- अंतःकरण, ह्रदय; हू- ईश्वर, ब्रह्म; क़हत- दुर्भिक्ष, सूखा; वा- हाय हाय; सू- दिशा;

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on November 14, 2018 at 2:16pm

जनाब क़मर जौनपुरी साहब आदाब,ओबीओ मंच पर आपका स्वागत है. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on November 14, 2018 at 12:16pm

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब। आपकी इस्लाह और ग़ज़ल को अपना बेशक़ीमती वक़्त देने का तहे दिल से शुक्रिया। मैंने तो ग़ज़ल लिखी थी, आपने उसे ग़ज़ल बनाया। आपकी प्रेरणा और सुझावों का ह्रदय से आभार। आवश्यक बदलाव करके रिपोस्ट करता हूँ। सादर। 

Comment by Samar kabeer on November 14, 2018 at 11:49am

'  

चंद लम्हों में उसके हाल बदल जाते थे

मेरी नज़दीक जो आता था अदू दीवाना'

इस शेर का ऊला मिसरा लय में नहीं,और सानी में 'मेरी' को "मेरे" करना उचित होगा,शैर यूँ कर सकते हैं:-

'चन्द लम्हों में ही हालात बदल जाते थे

मेरे नज़दीक जो आता था अदू दीवाना'

'  
कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों को तलातुम में कभी'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफुर है,इसे यूँ कर सकते हैं:-

'कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों पे तलातुम के सबब'

'  


राज़ ये शह्र है, मजनूँ का  बियाबाँ  है नहीं

पाएगा खोजने पे सैकड़ों तू दीवाना '

इस शैर को यूं कर लें:-

''राज़'' ये शह्र है,मजनूँ का बियाबाँ तो नहीं

लाख मिल जाएं जो खोजे यहाँ तू दीवाना'

Comment by क़मर जौनपुरी on November 14, 2018 at 7:40am

बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम समर कबीर साहब।

Comment by Samar kabeer on November 14, 2018 at 7:30am

जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना

मेरी नस नस में भी दौड़े है लहू दीवाना"

सानी मिसरा यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-

"दौड़ता है मेरी नस नस में लहू दीवाना"

'  एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार हुए'

इस मिसरे के अंत में 'हुए' शब्द को "तेरे" करना उचित होगा, गेयता बढ़ जाएगी ।

'  हारकर इश्क़ में सारा वो जहाँ आया है'

इस शेर को यूँ कर लें,गेयता बढ़ जाएगी:-

"इश्क़ में हारके वो सारा जहाँ आया है

इसलिये अश्कों से करता है वज़ू दीवाना"

बाक़ी अशआर पर टिप्पणी दोपहर को दूंगा ।

Comment by Samar kabeer on November 14, 2018 at 7:11am

जनाब क़मर जौनपुरी साहिब आदाब,ओबीओ मंच पर आपका स्वागत है ।

"बू" शब्द हिन्दी और उर्दू में स्त्रीलिंग है ।

Comment by क़मर जौनपुरी on November 13, 2018 at 9:44pm
मोहतरम हिंदी के हिसाब से बू दीवानी होगी दीवाना नहीं। उर्दू का गहन अध्ययन नहीं है, वहाँ यह प्रयोग सही या नहीं कृपया वज़ाहत करें।
Comment by राज़ नवादवी on November 13, 2018 at 11:21am

आदरणीय तेज वीर सिंह साहब, आदाब. ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया. सादर. 

Comment by राज़ नवादवी on November 13, 2018 at 11:11am

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. सुझाए गए बदलाव के बाद ग़ज़ल इस प्रकार है (बदले गए मिसरे/ शेर बोल्ड करके चिन्हित किये गए हैं), सादर: 

जब भी होता है मेरे क़ुर्ब में तू दीवाना

मेरी नस नस में भी दौड़े है लहू दीवाना //१

 

एक हम ही नहीं बस्ती में परस्तार हुए

जाने किस किस को बनाए तेरी खू दीवाना //२

 

हारकर इश्क़ में सारा वो जहाँ आया है

अपने अश्कों से ही करता है वजू दीवाना //३

 

लोग आते हैं चले जाते हैं सायों की तरह

क्या करे बस्ती का भी होके ये कू दीवाना //४

 

चंद लम्हों में उसके हाल बदल जाते थे

मेरी नज़दीक जो आता था अदू दीवाना //५

 

कब ये ज़ाहिर हुआ लहरों को तलातुम में कभी

मौजे दरिया को बना देती है जू दीवाना //६

 

क्यों बनाता नहीं तू जलवानुमाई से मुझे

मुझको कपड़ों से बनाता है रफ़ू दीवाना //७

 

तुझको आएगा मेरे जैसे दिवानों पे तरस

तू भी होगा जो मुहब्बत में कभू दीवाना //८

 

मुझमें लैला को भी मजनूँ का भरम होता है 

यूँ दिखे है मेरा हुलिया, मेरा मू दीवाना //9  

 

दौर ये लैला ओ मजनूँ की मुहब्बत का नहीं

तूने क्या सोचा था, क्यों हो गया तू दीवाना? //१०

 

मुझको दरकार नहीं तश्नगी ये दुनिया की

मैं तो रहता हूँ पये इशरते हू दीवाना //११

 

ताब आँखों की तेरी आग लगा देती है

यूँ रगों में नहीं दौड़े है लहू दीवाना //१२

 

राज़ ये शह्र है, मजनूँ का बियाबाँ है नहीं

पाएगा खोजने पे सैकड़ों तू दीवाना //१३

Comment by TEJ VEER SINGH on November 13, 2018 at 11:02am

हार्दिक बधाई आदरणीय राज़ नवादवी जी।बेहतरीन गज़ल।

ताब आँखों की तेरी आग लगा देती है 
यूँ रगों में नहीं दौड़े है लहू दीवाना /

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