मैं शब्दों के भार को तौलता रहा
भाव तो मन से विलुप्त हो गया|
मैं प्रज्ञा की प्रखरता से खेलता रहा
विचारों से प्रकाश लुप्त हो गया|
मस्तिष्क धार की गति तो तीव्र थी,
मन-ईश्वर का समन्वय सुषुप्त हो गया|
...
मैं ढल रहा था महामानव जैसा
मन की वेदना से उच्च थी
स्वयं की वंदना |
मेरे शब्द सितार के तार थे
पुस्तक की लय के लिए|
उनके पास समय न था,
किसी की विनय के लिए|
...
पदार्थवादी दंश मेरा जीवन था,
इस जीवन में,
आविर्भाव हुआ...
एक कन्या का - मेरी बेटी का|
ईश्वर की इस मंत्रश्रुति से,
मैं मंत्रमुग्ध हो गया,
मन-ईश्वर के संग्रंथन से,
भाव को संजीवन मिल गया|
अल्पप्राण - परिक्षीण विचारों
को मानो पीयूष मिल गया|
एक नयी कविता का जन्म हुआ|
....
मैं अद्भुत था,
वात्सल्यभाव पर परन्तु
मेरी परिणीता को संदेह था,
कहीं मैं ममता का विखंडन
कर इस कृति को
अपहस्त ना कर दूं |
मैं लज्जाशून्य नहीं था,
कई भावों को लील लिया|
....
मैं अपने प्राणाधार को
चन्द्रमण्डल के सोलहवें भाग
जैसा चाहता था...
........ क्षणजीवी विचार था|
प्रकाशगृह से निकल गया....
मेरी बाल-देवी लेकिन
पीठिका सी बन रही थी...
मैं शब्दों का शमन कर
श्वेतांशु सा मौन हो रहा था|
......
मैं जब भी अपनी सुता की
मंदस्मित चाहता,
किसी पोथी का पहला अध्याय
मेरा मार्गकंटक होता|
अंबरमणि विपर्यय को ही
उज्जवल कर रहा था|
हृदय खंडाभ्र सा अंशित हुआ
चेतन्य से मैं मुर्छित हुआ..
......
शब्दों में निपुण,
शब्दों के भार से दबा
मैं कितना शिथिल हूँ,
काश मैं केवल अपनी
बेटी का पिता होता...
चट्टान सा दृढ......
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आप सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद्| आप सभी ने रचना को पढ़ कर जो भाव व्यक्त किये वो सत्य ही हैं और आप सभी के सुझावों को मैं अपने सिर-आँखों पर रख कर ग्रहण करता हूँ.... रचना चूँकि भाव प्रधान है.. और वास्तव में सांकेतिक है...कहा कुछ और गया है और इसका अर्थ कुछ और ही है...इसमें सामान्यीकरण नहीं है वरन विशिष्टीकरण है...इसलिए शायद उचित प्रस्तुतीकरण नहीं हो पाया| आप सभी का पुनः धन्यवाद्|
काल का एक-एक खण्ड अपने आपमें वैचारिकता का महासागर समेटे होता है. इसी वैचारिकता की गहनता को परख कर प्रकृति दायित्व निर्वहन की क्षमता से सबल करती है. किन्तु ऐसे किसी आवण्टित दायित्व के निर्वहन से मुँह मोड़ लेना प्रकृति के निर्णय का असम्मान ही नहीं उसके कार्य में दखल भी हुआ करता हुआ है. कर्तव्यच्यूत होना तो अत्यंत सरल है. किन्तु, यह सरलता किसी व्यक्ति को स्वयं उसी की दृष्टि में गिरा सकती है. ऐसी घड़ियाँ आत्मपीड़ा की कई बार पराष्ठा हुआ करती हैं. इन घड़ियों में एक मानस जैसी वैचारिकता के वशीभूत आत्मचर्चा करता है, उन्हीं निश्शब्द आत्मचर्चाओं से लिये गये शब्द हैं, आपकी इस प्रस्तुति में भाई चन्द्रेश कुमार छतलानीजी.
किसी संतति का जन्म हमारे हाथों में नहीं है. प्रक्रिया नियंत्रण का गहन कार्य प्रकृति करती है. उसका निर्धारण भी ! ऐसे में किसी जन्म को बाधित करना और समाज में व्याप्त विसंगतियों तथा विड़ंबनाओं को देखते हुए ग्लानिवत होना प्रस्तुत कविता की अंतर्धारा है. गहन है यह अंतर्धारा ! परन्तु, इस गहनता में संप्रेषणीयता की बहुत आवश्यकता हुआ करती है. अस्फुट स्वर श्रवणीय भले न हों किन्तु उनकी क्षमता पाषाण-हृदय को हिला देने की होती है. यह होती है संप्रेषणीयता ! वैसे, यह भी सही है कि रचनाकर्म के अनुसार उसके पाठक हुआ करते हैं. अतः सभी पाठक हरतरह की रचना का आस्वादन नहीं कर पाते.
फिरभी, आपकी रचनाधर्मिता का सम्मान करते हुए हमारी ओर से यही सलाह होगी कि रचना का विषय चाहे जो हो उसका प्रस्तुतीकरण बहुत मायने रखता है.
शुभेच्छाएँ
सुंदर भाव ... इस कविता के बारे मे अग्रजों ने जो भी कहा है ... हमारे और आपके हित मे ही कहा है ... बधाई स्वीकार करें ... सादर
रचना अत्यनत गहन है आदरणीय गोपाल सर की बातों से मैं भी सहमत हूँ ..इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
मित्र
आपको रचना के लिए बधाई तो देता हूँ पर एक परामर्श भी है i कविता इतना भी सांकेतिक न हो कि उसमें साधारणीकरण कम हो जाए आपके प्रतीक, बिम्ब सब अच्छे हैं परिसमे सांकेतिकता अधिक है , इससे इसके सुग्राह्य होने में संकट दीखता है i
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