लौट रहे घन
बाँध राखियाँ
धरती के आँगन को
हर इक प्यासे मन को
हरी-भरी चूनर में
धरती
मंद-मंद मुस्काये
हरा-भरा खेतों का
सावन
लहराये-इतराये
प्रेम प्रकट करने
झुक आयीं
शाखें नील गगन को
नदिया का शृंगार
लहर के
स्वर में बोल रहा है
मस्त पुलिन का
अंग-अंग भी
जैसे डोल रहा है
बेकल हैं सारी
धाराएँ
पावन सिन्धु मिलन को
भीगे-भीगे वन की
दौलत
अम्बर चूम रही है
साथ पवन के
कजरी ठुमरी
गाती झूम रही है
देती झौंका
नर्म हवा भी
फूल भरे उपवन को
#
अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमस्कार, प्रस्तुत गीत रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर
आदरनी सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तुत रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
जनाब अशोक रक्ताले जी आदाब, बहुत सुंदर गीत हुआ है, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
वाह आदरणीय अशोक रक्ताले जी बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति हुई है सर जी । हार्दिक बधाई
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रस्तुत गीत रचना पर उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार. सादर
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। बहुत मनमोहक गीत हुआ है। कोटि कोटि बधाई।
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