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Sushil Sarna's Blog (853)

निशानों में .....

निशानों में .....

आंखें बन्द
मुट्ठियों भिची हुई
अंतस में शोर
अपने रुद्र रूप में
तलाश
बीते लम्हों की
खो गए जो
अपने साथ लिए
जन्मों के वादे
सागर किनारे
गीली रेत पे
छूटे
गीले पाँव के
निशानों में

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on December 12, 2016 at 2:29pm — 8 Comments

अधूरी तिश्नगी ...

अधूरी तिश्नगी ...

कैसे भूल सकती हूँ

वो रात

वो बात

जो एक चिंगारी से

शुरू हुई थी

वो चिंगारी

मेरी रगों में

धीरे धीरे

आग बनकर फैलती गयी

और मैं

चुपचाप उस आग में

जलती रही

मैं

खामोशियों के बियाबाँ में

गूंगी बनी

अपने जज़्बातों से

तन्हा सी

गुफ़्तगू करती रही

अपने खून में

लगी आग को बुझाना

मुझे कहां आता था

निहारती रही

आसमां की तरफ़

कि शायद कोई अब्र…

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Added by Sushil Sarna on December 8, 2016 at 6:11pm — 12 Comments

क्षण भर पीर को सोने दो .....

क्षण भर पीर को सोने दो .....

क्षण भर  पीर को सोने  दो

चाह को  मुखरित  होने दो

जाने चमके फिर कब चाँद

अधर को अधर का होने दो

क्षण भर पीर को सोने दो .....

आलौकिक वो मुख आकर्षण

मौन भावों का प्रणय समर्पण

अंतस्तल  को  तृप्त तृषा  का

वो छुअन अभिनंदन होने दो

क्षण भर पीर को सोने दो .....

बीत न जाए शीत विभावरी

विभावरी तो विभा से  हारी

अंग अंग  को प्रीत गंध का

अनुपम  उपवन  होने  दो

क्षण भर पीर…

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Added by Sushil Sarna on November 29, 2016 at 8:34pm — 6 Comments

घूंघट की ओट में .....

घूंघट की ओट में .....

खो गयी
एक गुड़िया
घूंघट की ओट में


बन गयी
वो एक दुल्हन
घूंघट की ओट में


ख़्वाबों का
शृंगार हुआ
घूंघट की ओट में


थम थम के
छुअन बढ़ी
घूंघट की ओट में


सब कुछ
मिला उसे
घूंघट की ओट में


बस
मिल न पाया
उसे एक दिल
घूंघट की ओट में

सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on November 24, 2016 at 8:31pm — 10 Comments

लाडो ....

लाडो ....

माँ

मैं तो

लाडो ही रहना चाहती थी

तुम्हारी लाडो

नाचती

कूदती

प्यारी सी लाडो

समय ने कब

बचपन की दीवारों में सेंध मारी

पता ही न चला

ज़माने की निगाहों ने

कब ज़िस्म को

छीलना शुरू किया

ख़बर ही न हुई

मैं

तिल तिल करती

मेहंदी की दहलीज़ तक

आ पहुँची

किसी के हाथों में

तेरी लाडो

कैद सी हो गयी

कोई रस्म

तेरी लाडो की

तक़दीर बदल…

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Added by Sushil Sarna on November 22, 2016 at 4:34pm — 10 Comments

व्यथित मन .....

व्यथित मन .....

कहते हैं

अंतर्मन की व्यथा को

कह देने से

हल्का हो जाता है

मन

कहा

आईने से

तो बिम्ब देख

और भी

व्यथित हो गया

मन

कहा

एकांत से

तो अंधेरों में

अट्टहास करती

असंख्य ध्वनियों ने

चीर डाला

व्यथित

मन

कहा

स्वप्न से

तो स्मृतियों के

सागर पर

मिल गया

मुझ जैसा ही

एक और

तन्हा

व्यथित

मन



देखा उसे

तो…

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Added by Sushil Sarna on November 21, 2016 at 9:02pm — 10 Comments

तृषित नज़र .....

तृषित नज़र .....

तृषित नज़र अवसन्न अधर

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर

नयन घटों की  हलचल में

मधु  पल सारे  गए बिखर

तृषित नज़र अवसन्न अधर 

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर 

देह दिगम्बर  रैन   निहारे

बिंब चुंबन के  देह  सँवारे

प्रेम बंध सब  चूर  हो  गए

स्वप्न  वात  में   गए बिखर 

तृषित नज़र अवसन्न अधर 

मौन भाव  सब  हुए  प्रखर 

निर्झर बन बही विरह वेदना

अमृत पल कुछ रहे  शेष न

श्वास श्वास से…

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Added by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 5:33pm — 4 Comments

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )

कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी

आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें

शून्य हैं


अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल

शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग


सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments

बेपर्दा ....



बेपर्दा ....

तमाम शब्

अधूरी सी

इक नींद

ज़हन की

अंगड़ाई में

छुपाये रहती हूँ

इक *मौहूम सी

मुस्कान

लबों पे

थिरकती रहती है

सुर्ख रूख़सारों पे

ज़िंदा है

वो तारीकी की ओट में लिया

इक गर्म अहसास का

नर्म बोसा

डर लगता है

सहर की शरर

मेरी हया को

बेपर्दा न कर दे

जिसे छुपाया

अपनी साँसों से भी

कहीं ज़माने को

वो

ख़बर न कर…

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Added by Sushil Sarna on November 14, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

अब, क्या बोलूं मैं ...

अब ,क्या बोलूं मैं ...

अब

क्या बोलूं मैं



जब

मेरे स्वप्निल शब्दों ने

यथार्थ का

आकार लेना शुरू किया

तो भोर की

एक रशिम ने

मेरे अंतरंग पलों पर

प्रहार कर दिया

मैं अनमनी सी

सुधियों के शहर से

लौट आयी

यथार्थ की

कंकरीली ज़मीन पर

मेरी उम्मीदों की मीनारें

ध्वस्त हो कर

मेरी पलकों की मुट्ठी से

निःशब्द

गिरती रही

तिल-तिल जुड़ने की आस में

मैं रेशा-रेशा

उधड़ती…

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Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

तुम्हारी ज़िन्दगी में ....

चलो

तुम ही बताओ

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

नसीमे सहर में

स्याह रात के सितारों में

बरसात की बूंदों में

झील के माहताब में

या

तुम्हारी बन्द पलकों के

ख्वाब में

आखिर

कहाँ हूँ

मैं

तुम्हारी ज़िन्दगी में

तेज़ पानी में

बहती कागज़ की

कश्तियों में

साहिलों के बाहुपाश में लिपटी

सागर की लहरों में …

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Added by Sushil Sarna on November 6, 2016 at 3:30pm — 4 Comments

बस , यूँ ही ....

बस , यूँ ही ....

मुस्कुराई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

गुनगुनाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

शरमाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

बहार बन के

आई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मुझ में समाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मेरे लिए

रोयी थी

उस रात

क्या तुम

बस …

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Added by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 4:30pm — 6 Comments

अंत के गर्भ में .....

अंत के गर्भ में .....

मैं
व्यस्त रही
अपने बिम्बों में
तुम्हारे बिम्ब को
तलाशते हुए

तुम
व्यस्त रहे
अपने
स्वप्न बिम्बों को
तराशने में

हम
व्यस्त रहे
इक दूसरे में
इक दुसरे को
ढूंढने में

पर
वक्त ने
वक्त न दिया
हम
ढूंढते ही रह गए
आरम्भ को
अंत के गर्भ में

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 2, 2016 at 10:11pm — 2 Comments

इक दिया ....

इक दिया ....

थे कुछ दिए

तेरे नाम के 
जो बुझ के भी
जलते रहे

थे कुछ दिए
मेरे नाम के भी
जो जले
मगर
बे नूर से

बस इक दिया
देर तक
जलता रहा
जो था
हमारे
अबोले

प्यार का

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 29, 2016 at 4:22pm — 8 Comments

नफरत न करना ..

नफरत न करना ..

प्यार

कितनी पावन

अनुभूति है

ये

पात्रानुसार

स्वयं को

हर रिश्ते

के चरित्र में

अपनी पावनता के साथ

ढाल लेता है

ये

आदि है

अनंत है

ये जीवन का

पावन बसंत है

प्यार

तर्क वितरक से

परे है

प्यार तो

हर किसी से

बेख़ौफ़

किया जा सकता है

मगर

नफ़रत !

ये प्यार सी

पावन नहीं होती

ये वो अगन है

जो ख़ुद…

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Added by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 8:30pm — 4 Comments

उपहार.....

उपहार.....

मौसम बदलेगा
तो
कुछ तो नया होगा

गुलों के झुरमट में
मैं तुम्हें
छुप छुप के
निहारता होऊंगा

तुम भी होगी
कहीं
प्रकृति के शृंगार की
अप्रतिम नयी कोपल में
छिपी यौवन की
नयी आभा सी

क्या
दृष्टिभाव की
ये अनुभूति
बदले मौसम का
उपहार न होगी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 26, 2016 at 1:21pm — 8 Comments

कल का जंगल ......

कल  का  जंगल  ...

खामोश चेहरा

जाने

कितने तूफ़ानों की

हलचल

अपने ज़हन में समेटे है

दिल के निहां खाने में

आज भी

एक अजब सा

कोलाहल है

एक अरसा हो गया

इस सभ्य मानव को

जंगल छोड़े

फिर भी

उसके मन की

गहन कंदराओं में

एक जंगल

आज भी जीवित है

जीवन जीता है

मगर

कल ,आज और कल के

टुकड़ों में

एक बिखरी

इंसानी फितरत के साथ

मूक जंगल का

वहशीपन…

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Added by Sushil Sarna on October 25, 2016 at 3:04pm — 8 Comments

माँ ...

माँ ...

दर्द का
मंथन हुआ तो
एक सागर
बूँद बन
लहद पर
ऐसा गिरा
कि
गर्म लावे से पिघल

माँ
लहद से बाहर
आ गयी
ले के दर्द बेटे का
फिर
लहद में
समा गयी

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 19, 2016 at 1:00pm — 4 Comments

लम्हा ...

लम्हा ...

ख़ामोश था
मैं जब तलक
हर तरफ़
इक शोर था

खोली जुबाँ
जो मैंने ज़रा
तो
हर शोर
ख़ामोश हो गया

इक लम्हा
ज़लज़ले में सो गया
इक लम्हा
ज़लज़ला हो गया

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 18, 2016 at 1:44pm — 4 Comments

अनबोले लम्स ....

अनबोले लम्स ....

आज मेरे

दिल के आईने में

मुझे

तुम नज़र आये थे

तन्हाई थी

मैं थी

और

तुम थे

अपने लम्स के साथ

मेरे ज़िस्म पर

बे-आवाज़

हौले हौले

रेंगते हुए

मेरी

हर

न को

तुम कुचलते रहे

खामोशियाँ

सरगोशियां करती रहीं

लौ भी

कहीं तारीक में

खो गयी

बस

शेष रही

मैं

और

मेरे ज़िस्म के

हर मोड़ पर

तुम्हारे…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 17, 2016 at 7:51pm — 2 Comments

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