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Ram Awadh VIshwakarma's Blog (33)

ग़ज़ल - करते हैं चोरी पर चोरी क्या कहने

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा
22 22 22 22 22 2
करते हो चोरी पर चोरी क्या कहने।
ऊपर से ये सीनाजोरी क्या कहनै।

बातें तो करते हो बढ़चढ़कर लेकिन,
बातें हैं कोरी की कोरी क्या कहने।

लाँघ न पाई अपने घर की जो देहरी,
दौड़ रही वो गाँव की गोरी क्या कहने।

कार्टून फिल्में क्या आईं टीवी में,
बच्चे भूले माँ की लोरी क्या कहने।

कल जो साधू सन्त दिखाई देते थे,
वे सब निकले आज अघोरी क्या कहने।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 29, 2017 at 10:00pm — 13 Comments

ग़ज़ल - इश्क में जार जार रोते हैं

फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22



रात दिन बार बार रोते हैं।

इश्क में जार जार रोते हैं।



जब नशे में थे हम मज़े में थे,

जब से उतरा खुमार रोते हैं।



प्यार की अब पतंग नहीं उड़ती,

ठप्प है कारोबार रोते हैं।



आप से क्या मियाँ बताये हम

दिल हो जब बेकरार रोते हैं।



जब मैं रोता हूँ साथ में मेरे

सबके सब दोस्त यार रोते हैं।



वक्त बेवक्त उसके हाथों से,

जब भी पड़ती है मार रोते हैं।



अपने अपने सुभाव के… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 26, 2017 at 5:50am — 17 Comments

ग़ज़ल - इश्क में हो खुमार कुछ तो सही

बह्र - फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 112 / 22

इश्क में हो खुमार कुछ तो सही।

उसमें आये निखार कुछ तो सही।



दर्देदिल का मज़ा है तब असली,

तीर हो दिल के पार कुछ तो सही।



हो भले झूठ मूठ का लेकिन,

उनसे हो प्यार वार कुछ तो सही।



आज फिर याद उनकी आई है,

दिल हुआ बेकरार कुछ तो सही।



बेवफाई हो जिसकी रग रग में,

वो भी हो शर्मसार कुछ तो सही।



जिन्दगी सौंप दूँ उसे लेकिन,

उसपे हो ऐतबार कुछ तो सही।



इश्क का भूत… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2017 at 5:51am — 8 Comments

ग़ज़ल - यूँ ही गाल बजाते रहिये

यूँ ही गाल बजाते रहिये।
भोंपू सा चिल्लाते रहिये।

अपना उल्लू सीधा करके,
दो का चार बनाते रहिये।

जिससे काम बने बस वो ही,
पट्टी रोज पढ़ाते रहिये।

सूरज उगने ही वाला है,
ये एहसास कराते रहिये।

हम प्रतिपालक हम हैं रक्षक,
चीख चीखकर गाते रहिये।

जीती बाजी हार न जायें,
दाँव पेंच दिखलाते रहिये।

जिनको राह के रोड़े समझें
उनको रोज हटाते रहिये।

मौलिक एवं अप्रकाशित रचना

Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 20, 2017 at 7:50pm — 27 Comments

गजल - आप के चेहरे से डर दिखने लगा।

फाइलातुन  फाइलातुन  फाइलुन

.

धीरे- धीरे सब हुनर दिखने लगा।

उसमें कितना है जहर दिखने लगा।

आँख में कैसी खराबी आ गर्इ,

राहजन ही राहबर दिखने लगा।

लाख डींगे मारिये बेषक मगर,

आप के चेहरे से डर दिखने लगा।

जो दवायें दी थीं चारागर ने कल,

उन दवाओं का असर दिखने लगा।

जो कभी झुकता नहीं था दोस्तो

अब वही सर पाँव पर दिखने लगा।

जानवर तो जानवर हैं छोडि़ये,

आदमी भी जानवर दिखने…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 25, 2013 at 7:30pm — 15 Comments

गजल/समझते थे उगा सूरज सवेरा हो गया

मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन फअल

समझते थे उगा सूरज सवेरा हो गया ,

यहाँ तो और भी गहरा अंधेरा हो गया।

जरा सा फर्क आया क्या दिलों में एक दिन ,

सगी बहनों में तेरा और मेरा हो गया।

कभी पहले से कोर्इ तय नहीं होती जगह ,

जहाँ चाहा वहीं संतो का डेरा हो गया।

कटेगी राम जाने किस तरह से जिन्दगी ,

मगर के साथ मछली का बसेरा हो गया।



फंसा कर जाल में मानेगा ही अब तो उसे ,

सुनहरी मछली पे मोहित मछेरा हो…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 6, 2013 at 8:30pm — 11 Comments

गजल /वो तब होता है बेकल एक पल को कल नहीं मिलताा

मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन मफार्इलुन



वो तब होता है बेकल एक पल को कल नहीं मिलताा

उसे सेल फोन पर जब भी कभी सिगनल नहीे मिलता।



गरीबों की दुआओं से उन्हें भी स्वर्ग मिलता है,

जिन्हें मरते समय दो बूँद गंगा जल नहीे मिलता ।

मुसाफिर की बड़ी मुषिकल से तपती दोपहर कटती ,

अगर रस्ते में बरगद , नीम या पीपल नहीें मिलता।

किसी के घर में मिलतीं सिलिलयाँ सोने की चाँदी की ,

किसी के घर में साहब दो किलो चावल नहीं मिलता।

हमारे…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 27, 2013 at 9:14pm — 11 Comments

गजल - जिनके मुँह में नहीं बतीसी भार्इ साहब

जिनके मुँह में नहीं बतीसी भार्इ साहब ,

चले बजाने वो भी सीटी भार्इ साहब।

.

भारी भरकम हाथी पर भारी पड़ती है ,

कभी - कभी छोटी सी चींटी भार्इ साहब।

.

काट रहे हैं हम सबकी जड धीरे-धीरे ,

करके बातें मीठी - मीठी भार्इ साहब।

.

मंहगार्इ डार्इन का ऐसा कोप हुआ है ,

पैंट हो गर्इ सबकी ढीली भार्इ साहब।

.

प्रजातंत्र में गूँगी लड़की का बहुमत से ,

रखा गया है नाम सुरीली भार्इ साहब।

.

सबको रार्इ खुद को पर्वत समझ रहा…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 23, 2013 at 8:30pm — 10 Comments

गजल

काँटे हैं किस के पास में किस पे गुलाब है।

जनता के पास आज भी सबका हिसाब है।

.

पढ़कर के जिस किताब को बच्चे बहक गये ,

बोलो र्इमान वालो वो कैसी किताब है।

.

लालो गुहर नही है मेरे पास में मगर ,

जो कुछ भी मेरे पास है वो लाजबाब है।

.

बैठे है करके बंद वो दरवाजे खिड़कियाँ ,

ये सोचकर कि अपना मुकददर खराब है।

.

ये सच है हाथ पाँव में अब जान ही नही ,

जिन्दा लहू में अब भी मेरे इन्कलाब है।

.

अंगार को बुझाइये पानी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 19, 2013 at 11:30am — 8 Comments

गजल

खड़े होकर सभी के सामने अक्सर दुतल्ले से।

जो बातें सच थीं ज्यों की त्यों कहीं हमने धड़ल्ले से।

.

सुना है राह के काँटे भी उसका कुछ न कर पाये,

मग़र पैरों मे छाले पड़ गये जूते के तल्ले से।

.

अकेला ही मैं दुश्मन के मुकाबिल में रहा अक्सर ,

मदद करने नही निकला कोर्इ बन्दा मुहल्ले से।

.

वो इन्टरनेषनल क्रिकेट की करते समीक्षा हैं,

नही निकले कभी भी चार रन तक जिनके बल्ले से।

.

तुम्हारे गाँव के बारे में ये मेरा तजुर्बा है,…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 7, 2013 at 10:30am — 17 Comments

ग़ज़ल

कलाम सबकी जुबाँ पर है लाकलाम तेरा।

सलाम करता है झुक कर तुझे गुलाम तेरा।

वो पाक़ साफ है इल्जाम न लगा उस पर,

करेगा काम वो वैसा ही जैसा दाम तेरा।

किसी को ताज़ किसी को दिये फटे कपड़े,

बड़े गज़ब का है दुनिया मे इन्तजाम तेरा।

जो अपने आप को पहुँचा हुआ समझते हैं,

समझ में उनके भी आता नहीं है काम तेरा।

तेरे ही नाम से होते हैं सारे काम मेरे,

मैं मरते वक्त तक लेता रहूँगा नाम तेरा।

मौलिक अप्रकाशित…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 4, 2013 at 8:00pm — 19 Comments

गजल

जाते-जाते वो मुझे लाकर की चाबी दे गया।

माल तो सब ले गया लाकर वो खाली दे गया।



मैं कभी तहजीब से बाहर निकल पाया नही ,

एक अदना आदमी फिर मुझको गाली दे गया।

उसने मेरी सादगी का यूँ उठाया फायदा ,

छीनकर दिन का उजाला रात काली दे गया।

जब भुनाने मैं गया उस रोज सेंट्रल बैंक में ,

तब पता मुझको चला कि चेक वो जाली दे गया।

रोटियाँ जो बांटने आया था भूखों को वही ,

खा गया खुद रोटियाँ आधी औ आधी दे गया।

अच्छे -अच्छे पारखी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on September 29, 2013 at 10:00am — 10 Comments

गजल

ठीक जगह पर देख भाल के बैठा हूँ।

मैं अपनी कुर्सी संभाल के बैठा हूँ।

तीसमारखाँ बहुत बना फिरता था वो ,

मैं उसकी पगड़ी उछाल के बैठा हूँ।

दुष्मन से बदला लेने की खातिर मैं

आस्तीन में साँप पाल के बैठा हूँ।

संसद की गरिमा से क्या लेना-देना ,

संसद में जूता निकाल के बैठा हूँ।

कौन समस्यायें जनता की रोज सुने ,

अपने कान में रूर्इ डाल के बैठा हूँ।

ऐरा गैरा नत्थू खैरा मत समझो ,

सारी दुनिया मैं खंगाल के बैठा हूँ।

मौलिक अप्राकिषत एवं…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on September 25, 2013 at 8:41pm — 12 Comments

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