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गजल - जिनके मुँह में नहीं बतीसी भार्इ साहब

जिनके मुँह में नहीं बतीसी भार्इ साहब ,
चले बजाने वो भी सीटी भार्इ साहब।

.

भारी भरकम हाथी पर भारी पड़ती है ,
कभी - कभी छोटी सी चींटी भार्इ साहब।

.

काट रहे हैं हम सबकी जड धीरे-धीरे ,
करके बातें मीठी - मीठी भार्इ साहब।

.

मंहगार्इ डार्इन का ऐसा कोप हुआ है ,
पैंट हो गर्इ सबकी ढीली भार्इ साहब।

.

प्रजातंत्र में गूँगी लड़की का बहुमत से ,
रखा गया है नाम सुरीली भार्इ साहब।

.

सबको रार्इ खुद को पर्वत समझ रहा है ,
एक घूँट क्या उसने पी ली भार्इ साहब।

.

पहले कफर््यू हटे तभी तो जले , घरों में ,
फिर से चूल्हा और अंगीठी भार्इ साहब।

.

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 25, 2013 at 6:26pm

आदरणीय श्री विजय मिश्र जी,सुशील जोशी जी,केवल प्रसाद जी,वैधनाथ सारथी जी, गिरिराज भण्डारी जी ,अरूणशर्मा अनन्त जी,डा आसुतोष जी ,सौरभ पाण्डे जी और सुश्री अन्नपूर्णा जी आप सबको तहे दिल से शुकि्रया अदा करता हूँ। दरअसल यह गजल मैने एक खास मकसद से ब्लाग में डाली है। यह गजल मात्रिक छन्द पर आधारित है। जैसा कि आप सब महानुभाव जानते हैं कि इस गजल की बहर फैलुन पर आधारित होनी चाहिये। परन्तु आजकल हिन्दी गजलकारों ने  अपनी सुविधानुसार फैलुन को फइलुन में बदल कर इस प्रकार की गजल को वार्णिक छन्द के नियम में फिट कर देते हैं। और इस प्रकार गणना 1111 करते हैं। परन्तु यह बहस का विषय है। जहाँ उदर्ू के शायर इसे रिजेक्ट कर देते हैं वही हिन्दी के गजलकारों ने सही ठहरा कर मान्यता दे दी है। विचारणीय यह है कि क्या यह मात्रिक छन्द पर आधारित गजल में वो सब बातें नहीं है जो उदर्ू के वार्णिक छन्दों की गजलों में है। और यदि है तो क्या इसे कूड़ेदान में सिर्फ इसलिये फेंक देना चहिये क्योंकि गजल फैलुन की विषम संख्या का पालन न करके लकीर से हटकर है। आशा है अपने विचार अवश्य प्रकट करेंगे। 

Comment by विजय मिश्र on October 25, 2013 at 12:33pm
आनंद आ गया भाई साहब , राम अवधजी बहुत वाजीब आधार दिया है आपने इस रचना के व्यंगात्मक शिल्प को . बधाई हो ..... .
Comment by Sushil.Joshi on October 25, 2013 at 4:41am

बहुत सुंदर गज़ल प्रस्तुत की है आ0 राम अवध जी.... बधाई हो....

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 24, 2013 at 8:46pm

 आ0 राम अवध भार्इ जी,  सादर प्रणाम!  वाह! बहुत खूब गजल कही है।............ हार्दिक बधार्इ स्वीकारें।  सादर,   

Comment by Saarthi Baidyanath on October 24, 2013 at 7:06pm

माननीय ..सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई ..

मंहगार्इ डार्इन का ऐसा कोप हुआ है ,
पैंट हो गर्इ सबकी ढीली भार्इ साहब...बढ़िया :)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on October 24, 2013 at 5:45pm

आदरणीय राम भाई , बहुत सुन्दर रदीफ चुना है आपने , पूरी गज़ल बेहतरीन कही है !!!! आपको हार्दिक बधाई !!!!!

Comment by अरुन 'अनन्त' on October 24, 2013 at 5:00pm

आदरणीय राम अवध सर अलग अंदाज में बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने सभी अशआर बेहद उम्दा बन पड़े हैं. आपसे विन्रम अनुरोध है कि यदि ग़ज़ल लिखते हैं तो साथ में बह्र अवश्य लिखें ताकि सीखने वाले मित्रों को कुछ कहने और समझने  में आसानी हो सके. इस सुन्दर ग़ज़ल हेतु दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 24, 2013 at 4:19pm

आदरणीय राम अवध जी ..लाजबाब ग़ज़ल ..पढ़कर आनंद आ गया ..तहे दिल बाधाही के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 24, 2013 at 1:46pm

एक बढिया ग़ज़ल के लिए धन्यवाद भाईसाहब !

वैसे फेलुन की संख्या आपने विषम रखी होती. जो कि परिपाटी है.

शुभ-शुभ

Comment by annapurna bajpai on October 24, 2013 at 12:53pm

क्या  खूब गजल कही आ0 राम अवध जी बहुत बधाई आपको । 

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