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बसंत कुमार शर्मा's Blog – June 2018 Archive (8)

गजल - फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं

मापनी २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ 

गाँव से आकर नगर में फिर वो’ मंजर ढूँढते हैं

ईंट गारे के महल में गाँव का घर ढूँढते हैं

 

रौशनी देने सभी को मोम पिघला भी, जला भी  …

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 29, 2018 at 4:00pm — 12 Comments

लट जाते हैं पेड़- एक गीत

राह किसी की कहाँ रोकते,

हट जाते हैं पेड़

इसकी, उसकी, सबकी खातिर,

कट जाते हैं पेड़

 

तपन धूप की खुद सह लेते

देते सबको शीतल छाया.

पत्ते, छाल, तना, जड़, सब कुछ,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 20, 2018 at 4:00pm — 16 Comments

सूर्य उगाने जैसा हो- गीत

जीवन की सूनी राहों में,

मधु बरसाने जैसा हो.

अबकी बार तुम्हारा आना

सचमुच आने जैसा हो.

 

धूप कुनकुनी खिले माघ में,

भीगा-भीगा हो सावन.

बादल गरजें जिसकी छत पर,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 18, 2018 at 10:00am — 20 Comments

गजल- फिर कोई मीठी शरारत हो गई है

मापनी - 2122 2122 2122

 

आपसे इतनी मुहब्बत हो गई है

लोग कहते हैं कि आफत हो गई है

 

नींद मेरी हो न पायी थी मुकम्मल

फिर कोई मीठी शरारत हो गई है

 

ढूँढता है रोज मिलने का बहाना…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 12, 2018 at 5:00pm — 20 Comments

लिखा बेहतर नहीं जाता- गजल

1222  1222 1222 1222

 

शिकायत है बहुत खुद से कि मैं क्यों कर नहीं जाता  

मुझे जिससे मुहब्बत है, उसी के घर नहीं जाता

 

अगर मिलना है’ उससे तो, तुम्हें जाना पड़ेगा खुद

चला करता है दरिया ही, कहीं सागर नहीं जाता

 

मधुर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 11, 2018 at 3:30pm — 11 Comments

सारी उम्र खटे - एक नवगीत

अंतर्मन में जाने कितने,

ज्वालामुखी फटे.

दूरी रही सुखों से अपनी,

दुख ही रहे सटे.

 

झोंपड़ियों में बुलडोजर के,

जब-तब घाव सहे.

अरमानों की जली चिताएँ,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2018 at 9:29am — 9 Comments

एक गजल- अगर रात है रात कहूँगा

चाहत की परवाज अलग है

उसका हर अंदाज अलग है

ताजमहल की क्या है’ जरूरत  

अपनी ये मुमताज अलग है

 

सुन पाते हैं केवल हम ही

अपने दिल का साज अलग है

 

मन की बातें मन में…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 2, 2018 at 4:00pm — 9 Comments

अम्बर को पाती भिजवाई -एक गीत

अम्बर को पाती भिजवाई,

व्याकुल होकर धरती ने.

 

सभी जरूरी संसाधन दे,

नर को जीना सिखलाया.

मर्यादा का पालन लेकिन,

कभी कहाँ वह कर पाया.

 

अपने मन की बात बताई,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 1, 2018 at 4:01pm — 14 Comments

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"आ. भाई नाथ सोनांचली जी, सादर अभिवादन। अच्छा गीत हुआ है। हार्दिक बधाई।"
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