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राज़ नवादवी's Blog – January 2019 Archive (3)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९१

२२१ २१२१ १२२१ २१२



आके तेरी निगाह की हद में मिला सुकूँ

हल्क़े को वस्ते बूद की ज़द में मिला सुकूँ //१



थी रायगाँ किसी भी मुदावे की जुस्तजू

दिल के मरज़ को दर्दे अशद में मिला सुकूँ //२



आशिक़ को अपनी जान गवाँ कर भी चैन था

जलकर अदू को पर न हसद में मिला सुकूँ //३



दामे सुख़न की अपनी हिरासत को तोड़कर

लफ़्ज़ों को ख़ामुशी की सनद में मिला सुकूँ…

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Added by राज़ नवादवी on January 10, 2019 at 1:04am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९०

२१२२ ११२२ ११२२ ११२/२२



अस्ल के बाद तो जीना है निशानी के लिए

ज़िंदगी लंबी है दो रोज़ा जवानी के लिए //१



यूँ ज़बां ख़ूब है ये तुर्रा बयानी के लिए

उर्दू मशहूर हुई शीरीं ज़बानी के लिए //२



लोग क्यों दीनी तशद्दुद के लिए मरते हैं

जबकि जीना था उन्हें जज़्बे रुहानी के लिए //३



नफ़्स के झगड़े हैं ने'मत से भरी दुन्या में

चंद रोटी के लिए तो, कभी पानी…

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Added by राज़ नवादवी on January 6, 2019 at 1:18pm — 12 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८९

२२१२ १२१२ २२१२ १२



नाकामे इश्क़ होके अपने दर पहुँच गया

सहरा पहुँच के यूँ लगा मैं घर पहुँच गया //१



दिल टूटने की शह्र को ऐसी हुई ख़बर

दरवाज़े पे हमारे शीशागर पहुँच गया //२



उसको भी मेरे होंठ की आदत थी यूँ लगी

साक़ी के हाथ मुझ तलक साग़र पहुँच गया //३



जब भी हुई जिगर को तुझे देखने की चाह

ख़ुद चल के आँख तक तेरा मंज़र पहुँच गया…

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Added by राज़ नवादवी on January 1, 2019 at 12:30pm — 13 Comments

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