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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-६८ (तरुणावस्था-१५): रेल से आंध्रा का सफ़र

(आज से करीब ३१ साल पहले)

किसी उदास दिन, किसी खामोश शाम, और किसी नीरव रात सा ये सफ़र मुझे बेचैन कर गया. रेल सरपट भागी जा रही थी और नज़ारे, खेत और खलिहान पीछे. दोपहर की वीरानगी में स्त्री-पुरुषों के साथ बच्चों को खेतों पे काम करते देख मन अजीब पीड़ा से भरता जा रहा था. गाड़ी भागती जा रही थी मगर बंजर दिखते खेत और पठारी एवं असमतल भूमि का कहीं अंत नहीं दिख रहा था. बैल हल का जुआ कंधे पे थामे, किसान अरउआ हाथ में पकड़े, औरतें और बालाएं हाथ में हंसिया लिए झुकी कमर, खामोशी, और निस्तब्धता के साथ अपने सुर-लय मिलाते अपने-अपने कामों में लगे थे.

 

झाड़ी-झुरमटों में मवेशियों का विचरना, दूर, सूनी, गर्द से सराबोर पगडंडियों पे किसी अकेले राही का बढ़ते जाना, विस्तृत नंगे मैदान के बीच किसी पेड़ की छाया तले लोगों का सुस्ताना, छोटे से वीरान स्टेशन पर ट्रेन का रुक जाना, जामुन, दही, या अन्य कोई चीज़ बेचने के लिए उद्यत पर नहीं बिक पाने से हल्की मायूसी से आवृत छोटे-छोटे बच्चे एवं तरुणियों के उदास चेहरे...ये सब क्या है? समझ में नहीं आता.

 

ट्रेन रात भर भागती ही रही, रुकी नहीं. भोर हो आई. पूरब से सूरज सुबह की ललाई लिए उदित हुआ. कल जीवनक्रम का पहिया संध्याकाल के मोड़ पे जम्हाई भरता नज़र आया था  मगर आज गांवों में लोग फिर से सूरज के जागने से पहले जाग चुके होंगे. फिर से शुरू होगी जीवन की वही कहानी. किसान हल-बैल लेकर चल पड़ा अपने काम पे, मजदूर कड़ाही-कुदाल-गैंती-फावड़ा लेकर, तो पनिहारिनें गगरी-मटका लेकर.

 

माथे पे गगरी सजाए, कमर पे मटका टिकाए, आधी भीगी धोती और कंचुकी में, कमर लचकाती, लटें संभालती, चेहरे पे छलक आई पानी की बूंदें हटातीं किसी तरुण पनिहारिन बाला में कोई कवि अपनी भावना को ढूंढता है तो कोई कलाकार अपनी कलाकृति को. पर वह बेचारी जीवन की हर सुबह और शाम इस रूप और इस काम में अपने जीने का मोल चुकाती है.

 

फटेहाल फेरीवाले- कोई कुछ बेचता तो कोई कुछ और. सभी इस मायने में एक हैं कि सभी टूटे हैं और जुड़ने और कुछ बनने के प्रयास में प्रतिपल टूट ही रहे हैं. ऐसा लगता है जीवन के सुख-स्वप्न को साकार करने के प्रयास में दुःख-दर्द की दिनचर्या हमारी आदत हो गई है.

 

रात फिर से एक बार आ चुकी थी. इसके निविड़ अन्धकार में सब कुछ डूब गया- खेत-खलिहान, गली-मकान, मेड़-पगडंडी, लोग और उनके लम्बे साए. हंसीं-खुशी, दुःख-दर्द, दिन की वीरानी और और शाम की उदासी- सभी निशा की नीरवता में बिला गए. मैं भी अपने बर्थ पे सोने चला गया!  

 

© राज़ नवादवी

मंगलवार, १८/०५/१९८२,

उड़ीसा प्रदेश में ट्रेन में कहीं पर 

'मेरी मौलिक व अप्रकाशित रचना'

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on September 12, 2013 at 10:46pm

आदरणीय गिरिराज जी, आपका हार्दिक आभार! 


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 12, 2013 at 10:24am
वाह !! आदरनीय राज भाई, बहुत बढ़िया , जीवंत कर दिया आपने अपनी यात्रा को !!
!! बधाई !!
Comment by राज़ नवादवी on September 12, 2013 at 12:20am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी, मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि आपको लेखनी पसंद आई! सादर! 

Comment by annapurna bajpai on September 11, 2013 at 10:36pm
बड़ा ही मनोरम द्र्श्य प्रस्तुत किया है आपने आ0 राज जी ।
Comment by राज़ नवादवी on September 11, 2013 at 9:58pm

धन्यवाद महिमाश्री जी! 

Comment by MAHIMA SHREE on September 11, 2013 at 9:08pm

बहुत सुंदर यात्रा वृतांत...

कृपया ध्यान दे...

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