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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-44

परम आत्मीय स्वजन,

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 44  वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का तरही मिसरा साहिर होशियारपुरी की ग़ज़ल से लिया गया है| | पेश है मिसरा-ए -तरह

 

"हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी "

2122       2122       212 

फाइलातुन   फाइलातुन   फाइलुन

(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)

रदीफ़ :- होने लगी 
काफिया :- ई(बेबसी, ख़ुशी, नदी, कमी आदि)
 

मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 26 फरवरी दिन बुधवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 27 फरवरी दिन गुरुवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.

नियम एवं शर्तें:-

  • "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
  • एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
  • तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
  • शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
  • ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक  अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल  आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
  • वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
  • नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
  • ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी । 

विशेष अनुरोध:-

सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन से पूर्व किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें | ग़ज़लों में संशोधन संकलन आने के बाद भी संभव है | सदस्य गण ध्यान रखें कि संशोधन एक सुविधा की तरह है न कि उनका अधिकार ।

मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....

 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 26 फरवरी दिन बुधवार लगते ही खोल दिया जायेगा, यदि आप अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सके है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.


मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह 
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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Replies to This Discussion

आदरणीया वन्दना जी सादर, गजल का इक शेर पसंद करने के लिए आपका शुक्रिया. आपने सही कहा है, मैं सहमत हूँ आपसे. वहाँ फिरभी नहीं तो भी लिखा था जिसे मैंने बात पर जोर देने के लिहाज से इस तरह लिखने का प्रयोग किया है. सादर.

मात्र एक शेर नहीं आदरणीय ग़ज़ल पूरी ही अच्छी है उस वक़्त कुछ जल्दी में यह बात नहीं लिख पायी थी माफ़ी चाहती हूँ 

बात छोटी से बड़ी होने लगी,

और दीवारें खडी होने लगी.......वाह! शानदार मतले से शुरुआत

जो नहीं था हम उसे माँगा किये,

मिल गया भी तो कमी होने लगी........यह शेर बहुत पसंद आया

बहुत सुंदर गजल कही आपने आदरणीय अशोक जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें

 

आदरनीय अशोक भाई , लाजवाब ग़ज़ल के लिये आपको मेरी दिली बधाइयाँ ॥

साथ अक्सर ही रहे दोनों मगर,
दुश्मनी फिर क्यों हरी होने लगी |

जो नहीं था हम उसे माँगा किये,
मिल गया भी तो कमी होने लगी |
पूरी ग़ज़ल अपनी जगह उपरोक्त शेर भले लगे..  मन बार-बार बधाई, आदरणीय अशोक जी.. .

सादर

साथ अक्सर ही रहे दोनों मगर,
दुश्मनी फिर क्यों हरी होने लगी ..

दुश्मनी साथ रहने से ही तो है ... बहुत खूब ... दाद कबूल करें अशोक जी ...

बढ़िया अशआर कहे हैं आदरणीय रक्ताले जी 

गिरह का शेर ख़ास पसंद आया 

व्याकरणिक त्रुटियों से बचा जाना चाहिये था 

इस प्रस्तुति पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

वाह! बहुत सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

वाह वाह आदरणीय रक्ताले साहब, ग़ज़ल अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई .

आदरणीय रक्ताले साहब अच्छे शेर हुए हैं...मेरी तरफ से दिली दाद कबूल कीजिये 

बात जब दिल की कही होने लगी
क्यूँ जहां से बेरुखी होने लगी ।1।

ग़म मिले इतने कि अपने हो गये
‘’हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी’’।2।

खुद-ब-खुद ही ग़म विदा होते गये
जब खुशी से दोस्ती होने लगी।3।

हुस्ऩ, आशिक, मैकशी, साकी कहॉं
जिंदगी की शायरी होने लगी ।4।

बन्द ऑंखों में धुँधलका ही रहा
खुल गयीं तो रौशनी होने लगी ।5।

ठानकर जब आईना हम हो गये
बात हर हमसे खरी होने लगी ।6।   

पुत गये चेहरे किसी दीवार से
जब से रुस्वा सादगी होने लगी ।7।

मस्अले सुलझें, हुआ इतिहास अब
हर तरफ रस्साकशी होने लगी ।8।

थे जो मर्यादा के मंदिर, अब वहॉं
जालसाज़ी, मसखरी होने लगी ।9।

वक्त ने अहसास सारे धो दिये
याद खुद से अजनबी होने लगी ।10।

लफ़्ज़ और अंदाज़ क्या बदले जरा
बात कड़वी चाशनी होने लगी ।11।  
मौलिक एवं अप्रकाशित

दो पुछल्ले:
रात बॉंहों में भरा जब चांद ने
नींद में ही गुदगुदी होने लगी।1।  

आज फिर उसका लिखा इक खत मिला
बेल यादों की हरी होने लगी ।2।  

वाह ह ह ह ! बहुत खूब आदरणीय ! बेशकीमती नगीने तराशे हैं आपने। पुरअसर और उस्तादाना ग़ज़ल के लिए मेरी जानिब से दिली मुबारकबाद । जय हो !

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