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(1). आ० मोहम्मद आरिफ जी

छुटकारा
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" मॉम ,क्या मैं अपना निर्णय खुद नहीं ले सकती? पोस्ट ग्रेज्युएट हूँ  ।" समीक्षा ने बड़े आत्मविश्वास से अपना पक्ष रखा ।
" क्यों नहीं बेटी, हमने तुझे पूरी आज़ादी दी है । तेरे लालन-पालन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । मगर तू यह सब क्यों पूछ रही है ?"
" मेरे अंदर अंधकार का एक घेरा है जो मुझे बहुत कचोटता है । उससे छुटकारा पाना चाहती हूँ ।"
" कौन-सा अंधकार ? कैसा घेरा ? किससे छुटकारा ? ज़रा साफ-साफ बताओ बेटी ।"
" दर असल उसके ज़िम्मेदार आप ही हैं, आई मीन यू एण्ड डेड बोथ ।"
" ठीक है बेटी , अगर तेरे डेड और मैं ज़िम्मेदार हैं तो क्या उस अंधकार को मिटा नहीं सकते ?"
समीक्षा-"क्यों नहीं ।"
"मगर कैसे ?"
" याद करो आज से चार-पाँच साल पहले आपकी ज़िद्द के आगे डेड ने घुटने टेक दिए थे और आखिरकार दादी माँ को आप वृद्धाश्रम छोड़ आए थे । मैं दादी माँ को हमेशा के लिए घर लाना चाहती हूँ और इस दीपावली घर को दादी माँ से रोशन करना चाहती हूँ । बोलो क्या ख्याल है ?" अब सुमन की आँखों से आँसू छलकने लगे ।
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(2). आ० सुनील वर्मा जी
रुदन

आवारा घूमते सांडों और बछड़ों से पूरा बाज़ार परेशान था| अक्सर उनमें होने वाली लड़ाई के कारण कितने ही ग्राहकों ने इधर आना छोड़ दिया था| परेशान दुकानदारों ने कल रात एक सभा आयोजित की थी| नगरपालिका में शिकायत करने के बावजूद कोई समाधान नही मिल रहा था| सुझाव मिला कि हम लोग आपसी सहयोग से कम से कम जितने हो सकते हैं उतने बछड़े तो खुद ही पकड़कर रात को शहर से बाहर छोड़ देगें| सबकी सहमति से तय हुआ कि सब्जी एंव फल विक्रेता कुरैशी भाई के पास ट्रक है इसलिए उसी में भरकर इस कार्य को अंजाम दिया जायेगा| साधारण सी बात को साधारण से तरीके द्वारा सुलझा लिया गया था, मगर आज सुबह का अख़बार जो कह रहा था वह साधारण नही था| गत रात कुछ लोगों ने अपने पूजनीय 'पशु' को कथित गलत इरादे से ले जा रहे ट्रक चालक को मार डाला| खबर सुनकर पूरा बाज़ार शांत था| यदि शांति के बीच कोई स्वर बचा था तो रात को बच गये उन 'पूजनीय पशुओं' का जो अभी भी सब बातों से अंजान आपस में सींग लड़ा रहे थे|
उधर घटनास्थल पर किसी छाँव की तलाश में बैठा 'सद्भाव' घुटनों में सिर दिये रो रहा था| धूप उसके सिर तक आ चुकी थी मगर शायद सूर्य उदय नही हुआ था|
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(3). आ० तसदीक़ अहमद खान जी
अंधेरी रात (उजाला )
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अमर सिंह घर से कार्यालय के लिए निकलने ही वाले थे कि अचानक घर पर  किसी ने घंटी बजा दी , बाहर आकर  देखा तो थानेदार सूबे सिंह खड़े थे | 
ड्राइंग रूम में बैठते हुए अमर सिंह ने पूछा " थानेदार साहिब कैसे आना हुआ "
सूबे  सिंह ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा " पिछ्ली रात मुहल्ले में किसी के घर चोरी नहीं हुई ,यह कैसे मुमकिन हुआ ?"
अमर सिंह ने जवाब में कहा " दो महीने से रात 2 बजे से 4 तक बिजली कटोती चल रही है ,गलियों में अंधेरे का फ़ायदा उठा कर चोर चोरी करते हैं ,पुलिस गश्त भी नाकाम साबित हुई 
सूबे सिंह ने बात बीच में काटते हुए कहा " चोरी रुकी कैसे ?"
अमर सिंह ने मुस्कराते हुए जवाब दिया "मुहल्ले वालों के प्लान के मुताबिक जिनके घर पर इनवरटर थे उन्होने घर के बाहर गली में एक एक बल्ब लगा दिया , जिस से बिजली जाने पर गलियों में उजाला हो गया "
यह सुनते ही सूबे सिंह सर का टेंशन ख़त्म करके हैरत से घरों के बाहर लगे बल्बों  को देखते हुए कोतवाली की तरफ चले गये -----
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(4). आ० अर्चना त्रिपाठी जी
स्नेह का उजाला

टी.वी पर अबला वृद्धा की तस्वीर देख रमन और रेवती के मन मे असख्यं सवाल सिर उठा रहे थे कि आखिरकार अम्मा जी वहां कैसे पहुंच गई ? अस्वस्थता के चलते वे तो बड़े भाई साहब के यहां थी।इसी तरह आंतरिक जद्दोजहद करते पुलिस स्टेशन पहुंचते ही रमन ने सवाल किया ,
" अम्मा, आप यहां कैसे ? "
बेटे को देखते ही अम्मा की चुप्पी हवा हो गई और रोते हुए कहने लगी , " मैं तो सोची थी कि तुम्हारे बड़े भैया के यहाँ आराम से रहूंगी।लेकिन उनका घर तो मेरे जाते ही अखाड़ा बन गया था।"
" लेकिन अम्मा, आपने घर क्यों छोड़ा ? भैया निपटते रहते भाभी से "
" तुम्हारे भैया क्या निपटते ,वो खुद ही कह रहा था अभी पहुँचा दिया तो जगहँसाई होगी।और मुझे समझा रहा था आप रमन के यहां चली जाओ ,यहां कौन आपकी सेवा करेगा।हम दोनों ही व्यस्त रहते हैं।जब मैं टस से मस नही हुई तब दोनो लड़ने लगे। "
रमन ने अम्मा को संभालते हुए कहा , " छोड़ो वो सब ,अब मैं आपकी एक भी नही सुनूंगा।अब हम सब साथ रहेंगे वो घर मुझसे पहले आपका हैं।"
" ठीक कह रहे हो बेटा , अभावो के अंधेरे में स्नेह का उजाला होगा मैं यह तो भूल ही गयी थी।"
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(5). आ० रश्मि तरीका जी
ज़ख्मी हाथ
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बिखरे काँच के एक टुकड़े पर पाँव पड़ते ही महेश गुस्से से बिफरते हुए पलँग पर बैठ गया और पत्नी को आवाज़ देने लगा।लेकिन कुछ पल बीतने पर भी कोई प्रतिक्रिया न पाकर एक पैर पर लंगड़ाते ,चलते कमरे से बाहर आया।
"माँ , ये नीला कहाँ है ?अभी तक उसने कमरे में सफाई तक नहीं की ।देखो उसकी लापरवाही का नतीजा ,कितना खून बह गया है।"
"न माँ के समझाने का असर ,न बीवी के।अब वो कब तक बिखरे टुकड़ों जो उठाती रहेगी ।"बेटे के पाँव में हल्दी लगाते हुए शीला ने कहा।
"एक तो तुम्हारी बहू रात भर मेरा दिमाग गर्म करती है।सुबह उठते ही तुम भाषण देना शुरू कर देती हो।चैन से जीने क्यों नहीं देती तुम दोनों।"घाव पर लगी हल्दी से अचानक उपजी चीस से महेश तिलमिला गया।
"कल रात उसका भाई तेरा तमाशा भी देख गया और अपनी बहन को भी साथ ले गया।तू अब दिन रात चैन की बंसी बज़ा।"
"हुंह..मेरे नशे और अंधेरे का फायदा उठा कर चली गई ।ये औरत जात ..!"गाली देते हुए महेश ने पास रखी हल्दी के लेप वाली कटोरी उठा कर फेंक दी।
"होश में रहते तो लक्ष्मी जैसी बहू यूँ न जाती।"
"तुम तो होश में रहती हो न तो रोक लेती अपनी लाडली बहू को।"
"होश में तो बेटा मैं तब भी थी जब तुम्हारे पिता के बिखेरे काँच के टुकड़ों को समेटती थी।बस एक अदद भाई ही नहीं था जो मेरे ज़ख्मी हाथों को देख पाता वर्ना मेरी ज़िंदगी में भी उजाला हो जाता ।"एक गहरी साँस ले शीला ने कहा और फिर से बेटे के लिए हल्दी का लेप बनाने लगी।
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(6). आ० विजय जोशी जी
उजाला

राधा को यह समझने या समझाने में दस वर्ष बीत गये, कि वैवाहिक जीवन का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति ही है। इन दस सालों में कौन सा दिन ऐसा बिता होगा, जिस दिन उसे पति, परिवार, पड़ोसी,पनिहारिन, परिवेश, व पक्षधर ही नहीं, परायों से भी बाँझ होने का प्रमाण पत्र न मिला हो। बावजूद इसके वह सभी के लिए सकारात्मक सोच लेकर चिन्मय के साथ जीवटता से जीवन जी रही थी।
किन्तु, आज राधा के पति चिन्मय ने ही उसे अपने जीवन का अंधकार बता कर, दूध की मक्खी की तरह जिंदगी से निकाल फेका।
आज राधा की दया, करुणा,त्याग, स्नेह, का मोल शून्य हो गया था।
राधा अपने इसी प्रश्न को लेकर जीवन जीने की जिजीविषा में कहीं गुमनाम हो गई।
चिन्मय अपने विवाह के उसी उद्देश्य को लेकर दूसरे नये बंधन में बंधा, और उसका उद्देश्य तो पूरा न हो सका ।
चिन्मय का बैंक बेलेन्स व जीवन दोनों खाली हो गये।
चिन्मय का अंधकार-मय जीवन राधा की तलाश में निकल पड़ा।
दर-ब-दर भटकते हताश होकर, जब विश्राम के लिए एक नदी किनारे बने बाल आनाथालय के आँगन के सामने बच्चों की चहल-पहल देख आगे बढ़ने ही लगा था, कि बेहोश होकर गिर पड़ा । आनाथालय के बच्चें सहायतार्थ उसे आश्रम में ले गये। होश आते ही चिन्मय के पैरों तले जमीन खिसक गई। चिन्मय की आँखों के सामने राधा व उसके विवाह से आज तक की सारी घटना एक चलचित्र की तरह घूम गई। राधा तुम... !
जिस आश्रम में वह अचानक पहुँच गया था। वहां की संचालिका समाज के अनचाहे जन्में, लावारिश पचास बच्चों की परवरिश कर उन बच्चों के जीवन में उजाला कर रही थी। वह हँसमुख आत्मनिर्भर राधा थी।
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(7). आ० ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी
उजाला दे दूंगी 

"माँ, आज साहब के बंगले में इतनी भीड़  क्यों है?" रोहित बाबु के बंगले के आउट हाउस में अपनी माँ के साथ रहने वाली छोटी  बच्ची रानी ने अपनी माँ अहिल्या से पूछा था।
अहिल्या जानती थी कि साहब के यहां नवरात्र में दुर्गा जी की पूजा होती है। आज उसी की पूर्णाहुति पर कुंवारी कन्याओं को भोजन कराया जाता है। उसके बाद दक्षिणा के रूप में उपहार भी दिया जता है।
"वहां माँ दुर्गा जी की पूजा हो रही है।"
"उससे क्या होता है?"
"उससे दुर्गा जी सद्बुद्धि देती हैं। और सद्बुद्धि से जीवन में उजाला आ जाता है। उसके प्रकाश में जीवन जीने से कोई भय नहीं होता है।"
"माँ, हम भी दुर्गा जी की पूजा क्यों नहीं करते?"
"करती हूं न। जहां दुर्गा जी की पूजा होती है, वहां की सफाई तो मैं ही रोज करती हूं। हमारी यही पूजा है।"
"तो फिर कन्या को बुलाकर खिला भी देंगे और दक्षिणा भी देंगें।"
"मैं तो रोज खिलाती हुँ कन्या को।"
"मैने तो किसी को आते हुये नहीं देखा।"
"तुम जो मेरी कन्या हो।"
"तुम दक्षिणा क्या दोगी?"
"मैं दुर्गा जी के पूजा स्थल की सफाई करते हुए पूजा भी करती रहती हूँ| वहाँ से .... "
"हां, तो वहां से दक्षिणा लायेगी क्या?
"हां, वहीं से सद्बुद्धि का उजाला लेकर तुम्हें उसमें से थोड़ा  सा उजाला दे दूंगी।"
"तुम्हारी यही बात मेरी समझ में नही आती।"
अहिल्या अपनी रानी को गले लगा लेती है।
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(8). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी
'हैरान हामिद' (लघुकथा) :

उस दिन दो विभिन्न विचारधाराओं के अख़बारों में हामिद की फोटो के साथ उसके स्कूल के कार्यक्रम संबंधित दो समाचार छपे थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से समाचार को चटपटा बना कर कुछ हिन्दूओं और मुसलमानों की राय भी प्रकाशित की थी। उन सबको पढ़ने के बाद हामिद के अब्बू ख़ुश होने के साथ ही कुछ-कुछ हैरान भी थे।

किंतु हामिद तो अतीत में खो चुका था। अभिनय में रुचि होने के कारण कितने शौक़ से इस बार उसने दशहरे के दो दिन पहले स्कूल में आयोजित 'रामलीला' में श्रीराम की भूमिका के लिए ज़िद करके भाग लिया था और बेहतरीन प्रस्तुति भी दी थी। वह कितने अद्भुत तज़ुर्बे से गुज़रा था। कार्यक्रम के दो दिन पहले से ही बाज़ार से श्रीराम की फैंसी ड्रेस लाकर संवादों की रिहर्सल करते समय दादा जी की नाराज़ घूरती निगाहें, चाचा के बच्चों को उस दिन स्कूल न भेजना और स्कूल में कुछ शिक्षकों व ईर्ष्यालू छात्र-छात्राओं की घूरती निगाहें और उपेक्षा उसके मन में अंकित हो चुकी थीं।

"कहां खो गए तुम!" अब्बू की आवाज़ उसे वर्तमान में ले आई। "इन तस्वीरों में सीताजी तुमसे इतने दूर क्यों बैठी हैं?" उन्होंने पूछा।

"अब्बू, मेरे साथ कोई सीता जी की भूमिका करना नहीं चाह रहा था, मुश्किल से तो ये तैयार हुई थी!" इतना कहकर हामिद फिर सोचने लगा- "सीताजी को कितने शानदार तरीके से सज़ा कर तैयार किया गया था और बाक़ी सभी कलाकारों को भी! कैसे उसने कम समय में स्वयं को ठीक-ठाक तैयार किया था बिना शिक्षकों की मदद के!"

"बेटा, तुम अपनी अदाकारी से ख़ुश तो हुए न! इतना क्या सोच रहे हो" अब्बू उसकी मनोदशा समझ रहे थे।

जवाब में हामिद ने कहा -"अब्बू स्कूल में रामलीला खेलते समय सबकी निगाहें या तो सीताजी पर टिकी हुई थीं या दहाड़ रहे रावण पर या खुर्राटे भर रहे कुम्भकरण पर ! उन्हें देखकर, उनके संवाद सुनकर सब लोग तालियां बजा रहे थे या उनके संवादों पर ठहाके लगा रहे थे। सब उनकी ही फोटो खींच रहे थे। मेरी तरफ़ तो दर्शकों ने तभी ध्यान दिया, जब मैं हिरण पकड़ने गया और जब मैंने वध किए!" इतना कहकर उसे याद आया कि जितनी तेजी से तालियों और जय श्रीराम की आवाज़ें गूंजी थीं, उतनी ही जल्दी शांत भी हो गईं थीं। फिर सबका ध्यान केवल जलते हुए रावण और फूटते पटाखों पर ही था। फिर धुआं फैलने लगा था।
"अब्बू कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रामलीला के बाद सब बच्चे शोर-शराबा करने लगे थे।" हामिद ने अब्बू के हाथ से अख़बार लेते हुए कहा-"किसी ने भी किसी कलाकार की तारीफ़ तक नहीं की सिवाय प्राचार्य के। सब लोग मोबाइलों पर लिए गए फोटो की तारीफ़ें ज़रूर कर रहे थे।"
"ऐसा ही होता है, बेटा, सबक़ कोई नहीं सीखता, मज़े सब लेते हैं!"
अब्बू की कही बात पर ग़ौर किये बिना हामिद अख़बारों में छपी तस्वीरों को देखते हुए समाचार पढ़ने लगा। अपने पड़ोसियों की घूरती नज़रें और दादाजी की बुतपरस्ती, शिर्क और काफ़िर वाली बातें याद आने पर वह दुखी हो जाता, किंतु अपने अब्बू से सुनी नये ज़माने वाली बातें याद आने पर उसका चेहरा खिल उठता। उसके कुछ दोस्तों ने भी तो उसे अपनी टोली में शामिल कर रावण दहन के दिन उसे आमंत्रित किया था।
हामिद को समाचार पढ़ते देख अब्बू ने फिर से उसे शाबाशी देते हुए कहा- "हैरान मत हो! जहां रौशनी मिले और जो रौशनी फैलाये केवल ऐसे ही अख़बार और मीडिया पर और ऐसे ही लोगों पर ग़ौर करो, बाक़ी छोड़ो; हम सही ट्रैक पर हैं और रहना चाहिए!"
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(9). आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी
एक कदम
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मनचले को जोरदार थप्पड़ पड़ा था. उस मनचले लड़के ने सोच लिया कि वह इस रिश्तेदार लड़की और उस की मालकिन के इस अड्डे का भण्डाफोड़ कर के रहेगा. वह मौहल्ले के 10 लोगों को बहलाफुसला कर ले आया.
'अरे ओ मैडमियाजी ! बाहर निकलो जरा ?  मोहल्ले के लड़केलड़कियां को इकट्ठा कर के क्या करती हो ?  लोगों को यह तो पता चले.'
' हांहाँ  सावित्रीजी ! हम आप की हकीकत जानना चाहते हैं, ' तभी कमरे से बाहर आई सावित्री से बहुत दिनों पहले पीट चुका व्यक्ति ऊंची आवाज में चिल्ला कर बोला, ' आप अंदर क्या गुल खिलाती है ?'
चार लड़कियों से घिरी सावित्री ने उसी अंदाज में चिल्ला कर पूछा, ' काहे शोर मचा रहो भाई ?'
' अपनी असलियत तो बताओ ! इन्हें. तुम कौन हो ? कहाँ से आई हो ,' वह मनचला बदला लेने की नियत से उस की दुखती रग पर चोट करते हुए बोला, ' यहां आने से पहले तुम्हारे साथ चार लोगों ने क्या किया था ? और तुम वहीं गंदा काम यहां की लड़कियों से करवा रही हो ?'
उस की बात पूरी होने से पहले ही वह रिश्तेदार लड़की हरकत में आ कर चिल्लाई, ' क्या कहा रे ! कल की मार...'
उस लड़की की बात पूरी होने से पहले ही सावित्री ने उसे इशारे से रोक दिया और लोगों की ओर मुखातिब हो कर बोली, ' आप यह जानना चाहते हो ना कि मैं यहां क्या करती हूं ?''
सावित्री ने एक निगाहें मोहल्ले वालों पर डाली.
"जी हां.' एक आवाज आई, ' हम मौहल्ले में ऐसा गंदा काम नहीं होने देंगे.'
उस की बात पूरी नहीं हुई थी कि ' अबे चुप !' सावित्री चींखी,' तुम उजालों में, रिश्तेदारी की आड़ में जो गंदा काम करते हो ना,  यहां अंधेरे में,  मैं लड़कियों को उस से बचने के लिए प्रशिक्षण देती हूं. ताकि वह तुम्हारे जैसे रिश्तेदारों के नापाक इरादों से बच सकें.'
सावित्री के यह कहते ही मनचले का हाथ अपने गाल पर चला गया. उसे अपनी रिश्तेदार लड़की का झन्नाटेदार जूड़ोकराते वाला थप्पड़ याद आ गया और वह चुपचाप भीड़ की मार से बचने के लिए वहां से खिसक लिया.
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(10). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी
ताज़ा ख़बर


नई बहू के बनाए भजियों के स्वाद की संतुष्टि , रिजवी साहब के दाढ़ी के आंखिरी बाल तक तिर आई थी I
“सकीना बिटिया को भेजो भई, नेग तो बनता है I और एक कप चाय और पिलवा दो I’’ दोनों पैर टेबल पर रख ,सर सोफे पर पीछे टिका दिया उन्होंने I
“ये क्या किया आपने ! सारा तेल पेपर पर लसेड़ दिया I” पत्नी पीछे खड़ी थी I
“भजियों का ज्यादा तेल पेपर में दबा कर थोड़ा कम कर लिया, और क्या I हम तो पढ़ चुके हैं सुबह ही दोनों पेपर I तुम्हें पढना था क्या ?” मुस्कुराते हुए कह तो गए रिज़वी साहब, पर पत्नी के चेहरे के बदले भाव देख  सकपका गए I
“ हम भी पढेंगे ज़रूर , पर फिलहाल सकीना बिटिया के लिए कह रहे हैं I घर का काम निबटा कर वो रोज़ पेपर  पढ़ती है I” पत्नी के भावों का अनुमोदन, टेबल पर रखे उर्दू के अखबार ने भी कर दिया फड़फड़ा कर I
“ओहो..अच्छा !”  सोफे पर अब  संभल कर बैठ गए रिज़वी साहब  I पल भर चुप्पी के बाद, पत्नी से आँखें चुराते हुए पैरों से सोफे के नीचे रखी चप्पलें टटोलने लगे I
“ कहाँ जा रहे हैं ?”
“सामने चाय की गुमटी में भी आता है हिंदी का पेपर I फुरसतिये दिन भर चाटते रहते हैं I अभी ले आता हूँ I”
‘’ अब्बू , चाय चढ़ा दी है I”  पर्दे के पीछे हलचल हुई I
“ पहले तुम्हारा पेपर ले आऊँ , फिर आकर पीता हूँ चाय I  बस ये गया और आया I” उठते हुए उनकी नज़र पेपर की सलवटों में छिपे एकमात्र भजिये पर पड़ गई I उसे उठाकर पास खड़ी पत्नी के मुहँ में ढूंस दिया उन्होंनेI
शुक्रिया में लिपटी एक कोमल मुस्कान पर्दे के पीछे से निकल कर कमरे में तैर गई I
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(11). डॉ ई आर सुकुल जी 
रोड टैक्स

‘‘ क्यों जयन्त ! तुम्हारे शहर में सड़क के किनारे खड़े होने पर भी टैक्स लगता है?‘‘
‘‘ क्या बात है नीरज! ‘‘
‘‘ अरे ! बस से उतरकर पिछले बीस मिनट से तुम्हारे आने की प्रतीक्षा यहाॅं कर रहा था, इतने में पाॅंच भिखारियों को एक एक रुपया दे चुका हॅूं‘‘
‘‘ अच्छा ! तो ये बात है, हः हः हः हः, हमारे देश ने भिखारी ही तो पैदा किये हैं ।‘‘
‘‘ देखो ! वह छठवाॅं इसी तरफ आ रहा है , अब मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं, जल्दी स्कूटर स्टार्ट करो ... ‘‘
इसी बीच भिखारी ने अपने कटोरे को जयन्त की ओर बढ़ाया जिसे देख नीरज ने अपना मुॅंह दूसरी ओर करते हुए कनखियों से उसे देखा।
वह मटमैला सा कटोरा हिलाते हुए कहने लगा, ‘‘ अरे साब, कुछ तो दे दो ! ! किसी को कुछ न देने के कारण ही मेरी यह दुर्दशा हुई है.... ‘‘
जयन्त ने एक्सीलरेटर घुमाया और स्कूटर फुर्र हो गया। लगभग पचास मीटर ही चला होगा कि अचानक उसने स्कूटर मोड़ा और उसी स्थान पर आकर उस भिखारी को खोजने चारों ओर नजर दौड़ाने लगा पर भिखारी वहाॅं से गायब हो चुका था।
अचरज में पड़े नीरज ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘ क्या हुआ जयन्त ! बापस क्यों आ गए?’’
‘‘ अरे यार, उस भिखारी से मिलना था, वह पता नहीं कहाॅं चला गया’’
‘‘ लेकिन क्यों, ये सब तो घूमते ही रहते हैं, मैं तो इन लोगों से तंग आ चुका हॅूं’’
‘‘ तुम नहीं समझोगे’’
‘‘ पर कुछ बताओ तो सही ?’’
‘‘ उसने मेरी आखें खोल दी हैं। ’’
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(12).  डॉ आशुतोष मिश्रा जी 
उजाला
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उगते सूरज को जल से अर्ध्य देना , फिर दिन भर पूरब से पश्चिम तक सूरज के सफ़र को निहारना, अस्तांचल में डूबते सूरज को देखकर हतोत्साहित होना और फिर अँधेरे को चीरकर दुनिया को रोशन करता देख उत्साह से भर जाना जैसे एक आदत में शामिल हो गया था राहुल के / सूरज का दुनिया को रोशन करना, पेड़, पौधों को अपनी उर्जा से भोजन निर्माण और ऑक्सीजन उत्पन्न करने की महत्वपूर्ण भूमिका निबाहना जहाँ राहुल को समाज सेवा के माध्यम से समाज के प्रति अपने दायित्वों के निर्बहन हेत प्रेरित करता था वहीं अँधेरे से हारकर, समुद्र के गहरे में उर्जा संचयन के साथ दूर पहाड़ी से उसका उदित होकर अँधेरे के खिलाप संघर्षरत होना अँधेरे पर उजाले की विजय के लिए भी सतत प्रेरित करता था/राहुल सूरज तो हो नहीं सकता था पर सूरज जैसा होने की चाह राहुल के दिल में दिन प्रतिदिन बलवती होती जा रही थी / गरीब बच्चों को शिक्षित करना, बेसहारों को सहारा देना जैसे समाज सेवा के काम तो राहुल न जाने कितने बर्षों से कर रहा था किन्तु अपनी जिन्दगी में डूबकर भी उबरना और जीवंत बने रहने की सूरज की इस आदत का अनुसरण कैसे किया जाए यह राहुल के लिए अबूझ पहेली था पर बर्षों तक उसके चिंतन ने उसके लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया था /.. राहुल जब बृद्ध हो चला और उसे बीमारियों ने घेरना शुरू कर दिया इस बात से राहुल भली- भांति परिचित हो गया था कि उसकी थकी हुयी जिन्दगी को मौत कभी भी अपने आगोश में ले सकती है-तो हार कर भी जीत की चाह रखने वाले राहुल ने समय रहते ही अंग – दान केंद्र को अपनी मौत के बाद अपनी आँख , ह्रदय और किडनी किसी जरूरतमंद के शरीर में प्रत्यारोपित करने हेतु आवेदन कर दिया / बर्षों बाद राहुल की मौत हो गयी और उसके अंग जरूरतमंदों के शरीर में प्रत्यारोपित कर दिए गए थे / किसी जिस्म में आंख , किसी में धडकते दिल और किसी में किडनी के रूप में जुड़कर राहुल ने सूरज जैसा होने के अपने संकल्प को पूरा कर लिया था / मौत से हारकर भी उसने कितनी ही जिंदगियों को अँधेरे से उबारकर उजाले से लबरेज जो कर दिया था /

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(13).  आ० तेजवीर सिंह जी 

रोशनी की किरण 

लघुकथा  –   रोशनी की किरण -

 प्रिय सुमित्रा,

 मालूम नहीं, अब तुम्हें मेरा प्रिय लिखना भी पसंद आयेगा कि नहीं। मुझे भी कई बार सोचना पड़ा कि प्रिय लिखूं कि नहीं। सच में मुझे खुद भी यक़ीन नहीं कि इस अलगाव के बाद मुझे प्रिय लिखने का अधिकार है भी कि नहीं।

आज तुम्हें अपनी माँ के घर गये हुए पूरा डेढ़ महीना हो गया। मैंने कई बार तुम्हें फोन किया लेकिन तुम्हारा मोबाइल भी बंद रहता है, शायद तुमने नया नंबर ले लिया होगा?

मुन्ना के स्कूल से भी फ़ोन आया था, उसकी पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा है।

पिछले दस वर्ष में बहुत बार अकेले रहना पड़ा है लेकिन इस बार अखर गया क्योंकि तुम झगड़ा करके गयी थीं। तुम्हारे जाने के बाद लगभग आठ दिन तो मैं घर ही नहीं आया क्योंकि अकेले घर में एक रात गुजारना भी अपने आप को यातना देना जैसा लगता थ। जो घर कभी मेरे लिये सबसे ज्यादा सुक़ून देने वाली जगह थी, अब वही घर काटने को आता था।

तुम तो शायद यह भी भूल गयीं कि हम दोनों ने प्रेम विवाह किया था। मेरे प्रेम का अच्छा सिला दिया तुमने । वैसे प्रेम तो मुन्ना के जन्म के बाद,  हम दोनों के बीच मात्र एक शब्द बन कर ही रह गया था। क्योंकि तुम मुन्ना को एक मिनट को भी अपने से ज़ुदा नहीं कर पाती थी और मेरी ज़रूरतें तुम्हारे लिये कोई मायने नहीं रखती थीं।

मैं मानता हूँ कि मुझे तुम पर हाथ नहीं उठाना चाहिये था, वह मेरी भूल थी, मगर तुमने भी तो बेहद घटिया किस्म का इल्ज़ाम लगाया था। भला कोई भी शादी शुदा और एक बच्चे का बाप , एक दस साल की लड़की के साथ... छि मुझे तो लिखने में भी घिन आती है। हाँलांकि यह भी सच है कि वह सोच तुम्हारी नहीं थी। तुम्हें गुमराह किया गया था। तुम लोगों के बहकावे में जल्दी आ जाती हो।

खैर, अब जब तुमने अपना अलग रहने का फ़ैसला मेरे ऊपर ज़बरन थोप ही दिया है तो मैंने भी एक निर्णय ले लिया है। जिन माँ बाप को तुम्हारे लिये छोड़ आया था , अब वापस उनके पास जा रहा हूँ और शेष जीवन उनकी सेवा करूंगा। शायद मेरी इस कोशिश से उन बूढ़ी आँखों की खोई चमक वापस आ सके।

तुम्हारा - प्रदीप

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(14). आ० जानकी वाही जी 
जुगनू*

मैंने जहाज की खिड़की से नीचे झाँका तो शीशे के पार बहुत नीचे रोशनी से नहाया एक शहर दिखा।ऊपर से ये शहर कितने सुव्यस्थित और सुंदर लगते हैं।एक साफ़ कटा बर्फी का टुकड़ा सा।मेरे होंठों पर एक मुस्कान छा गई।अपनी ही उपमा पर।
" काश की ये नीचे भी इतने ही सुंदर होते ? "
मैं , शीशे पर होंठ सटाकर हौले से बुदबुदाया । सहयात्री ने मेरे इस बचपने को देखा और मुस्कुराया।
" हम सब एक बचपन हमेशा जीते हैं चाहे उम्र के कितने भी पड़ाव पार कर लें। मुझे राजीव गुप्ता कहते हैं।"
बात करने की पहल की उसने।उसकी दिलचस्पी अब मुझमें जग चुकी थी।
" मैं अनिरुद्ध जोशी , " कह मैं फिर अपने में ग़ुम हो गया। मैं तुरन्त उड़कर अपनी नन्हीं परी के पास पहुंचना चाहता था। मैंने जेब से एक ख़त निकाला और पढ़ने लगा ।
"कोई इंतज़ार कर रहा है ?"
अबकि सहयात्री ने औपचारिकता छोड़ पूछ ही लिया।
" हाँ ,मेरी नन्ही बिटिया और मेरी प्रिय अर्धांगिनी। हमारे आँगन की पहली कली है ये ।"
" पहली बार उसे देखोगे ? "
" नहीं , मैं तो उसके नौ महीने के सफ़र के एक -एक पल का साक्षी हूँ।पर हमारे आँगन में उतर कर वह आजकल अपने ननिहाल आई है।आज मैं वहीं जा रहा हूँ।"
मुझे लगा मैं बोलते-बोलते ख़ुशी के अतिरेक से भर उठा हूँ।
" हूँ... पहली बार पिता बने हो ,इसलिए उत्साहित हो।" लगा सहयात्री की दिलचस्पी अचानक मुझमें खत्म हो गई।
" मैं एक बात बोलूं ? "
सहयात्री ने प्रश्नवाचक नज़र मुझपर डाली।
" मेरी पत्नी ने नौ महीने में जो कुछ जिया या सहा ,मैं उसका मोल नहीं चुका सकता।"
" इसमें कौन सी नई बात है ? हर औरत जो माँ बनती है ये सब करती है उसमें मोल चुकाने की क्या बात है।बच्चा उसका भी तो है।"
उसकी लापरवाही से लबरेज़ बात मुझे चुभ गई।
" पर मैं महसूस करता हूँ औरत की भावनाओं और त्याग को ?"
" अच्छा ! तो आप क्या मोल देंगें ? "अब उसकी आवाज़ में परिहास छलक रहा था।
मैंने बिना बोले अपने हाथ का ख़त उसे पकड़ा दिया। जिसे पढ़ते हुए उसके चेहरे पर कई रंग गुज़र गये ।

प्रिय , शेफाली (मुखर्जी )

गर्भ दिया, रक्त दिया; त्याग किए, क्या न सहा।
कोख़ दी, चैन दिया; उफ़ न की, कुछ न कहा।
प्यार दिया, अन्न दिया; रोग लिए, व्यवसाय रुका।
शक्ति दी, मुस्कान दी; सामने हर दर्द झुका।
मैं कृतज्ञता से इस मोल का एक अंश देता हूँ
'जननी' हमारी 'बेटी' को तुम्हारा वंश देता हूँ।"

ओहाना मुखर्जी' / शेफाली मुखर्जी
तुम्हारा अनिरुद्ध

सहयात्री ने अबूझी आँखों से देखते हुए ख़त मुझे लौटाया जिसे मैंने साथ लाई रजनीगन्धा की टोकरी में हौले से रख दिया।मेरी पत्नी मेरे प्यार के लिए।
" तुम क्या सोचते हो ? तुम समाज को बदल दोगे ?"
" नहीं , जुगनू ने ये कभी कहा कि वह संसार को रोशन करता है।"
जहाज में नीचे उतरने की घोषणा हो रही थी।
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(15). आ० वसुधा गाडगिल जी 
भास्कर
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भास्कर का  निर्णय सुन उसके माता-पिता दोनों नाराज़ हो गये।माँ ने तो खाना-पीना छोड दिया था।
" दोनों मेंसे किसी एक को चुन लो या तो उसे  या हमें।"पिताजी ने कड़ा रुख अपनाते हुए भास्कर से सख़्त आवाज़ में कहा।
" किंतु पिताजी ,जब भी मैं वहाँ जाता हूं, उसे देखता हूं, उसकी आँखें मुझे अपनी ओर खींचती हैं।कुछ कहती हैं...अजीब सा जादू है उसमें ,जो चुम्बक की तरह मुझे आकर्षित करता है।"
" बकवास है यह!तुम जानते नही हो, तुम्हारे इस कदम से रिश्तेदारों में थू-थू होगी।हमारा समाज इस रिश्ते को नही अपनायेगा!कोर्ट-कचहरी के रास्ते नापने पडेंगे सो अलग..और फिर शादी !!"
" मैं सबकुछ कर लूंगा पिताजी, बस आप और माँ ,हाँ कर दीजिए।" बेटे की ज़िद देख माँ-पिताजी ने स्वीकृति दे दी किंतु भास्कर की उम्र इस चाहत के बीच बाधा बन गई।आखिर मानवीय आधार पर कोर्ट को चाहत के आगे झुकना पड़ा।कोर्ट का फैसला भी उसके पक्ष में हुआ।
अविवाहित भास्कर ,डाऊन सिंड्रोम से पीडित अपने दत्तक पुत्र , "स्पेशल बेबी - उदय " को गोद में लिये हुए अनाथाश्रम से खुशी-खुशी बाहर आया।उदय भी किलकते हुए ,अपने पापा के गालों को सहला रहा था तो कभी उनके शर्ट के बटन से खेल रहा था।तभी वहाँ एक सुंदर सी लडकी आ खडी हुई।
" भास्कर..."
" हाँ रश्मि, यही है मेरी ज़िंदगी की रोशनी....मेरा उदय "
" अब से मेरी ज़िंदगी की भी....मैं इसकी मम्मी बनना चाहूंगी।" कहते हुए रश्मि ने उस बडे सिर ,चपटी नाक ,निश्छल प्यार बरसाती मासूम आँखों वाली नन्हीसी जान को अपने सीने से लगा लिया।करीब खडे हुए भास्कर के पिताजी ने भास्कर को गले लगाते हुए कहा-
"  भास्कर..आज तू आसमाँ से ज़मीं पर उतर आया रे.."
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(16).  आ० नयना(आरती)कानिटकर जी 
"जगमगाहट"


 "हैलो! हैलो!  पापा ? सुप्रभात, ममा को फोन दीजिए जल्दी से "---- ट्रीन-ट्रीन-ट्रीन की आवाज़ सुनते ही सुदेश मोबाईल उठाया स्क्रीन पर बिटिया को देख चहक उठे थे.
" हा बेटा! कैसी हो मुझसे बात नहीं करोगी. हर बार ममा ही क्यो लगती है तुम्हें मुझसे भी बात करो. वैसे वो तुम्हें फोन करने ही वाली थी."
" अरे! नही पप्पा ऐसी कोई बात नहीं मगर मेरी बात  पहले मम्मा ही समझ..."
" वो बुनाई करती बैठी है आँगन में. "अरे! सरला, सुनो भी तुम्हारी बेटी का फोन है कहती  है माँ से ही बात करना है."  सुदेश आवाज लगाते हुए बोले.
" मुह्हा-- कैसी हो बेटा? हो गया दिवाली पर घर आने का आरक्षण." स्वेटर बुनते हुए सलाईयां हाथ मे पकडे सरला ने उत्साहित होते हुए पूछा.
" हा ममा! इस बार मैं "रोशनी" को लेकर घर आ रही हूँ. आप जल्द ही नानी बनने वाली है उसके लिए एक स्वेटर  बुनिए." उत्साहित सी आकांक्षा ने कहा
" क्या..."
"हा! प्यारी माँ  फोन रखती हूँ मुझे कोर्ट से आदेश की प्रति लेकर अनाथालय भी जाना है." आकांशा ने कहा
" सुनते हो! आप नाना बनने वाले है."
सोफ़े पर धम्म से बैठ गये सुदेश. सरला भी  फोन पर बातें  करते-करते नीचे गिर गये ऊन के बाल को समेटते उनके पास आ बैठी. दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम लिया. अचानक दोनो साथ ही बोल उठे कुछ गलत नही कर रही आकांक्षा  बिटिया
"पिछली कई बार आये  रिश्तों में हमारी पढी-लिखी होनहार लड़की का लडके वालो  ने पैसों के बल पर किस तरह मूल्यांकन करना चाहा था और ऐसा एक बार हुआ होता तब भी  हम सह लेते . सुदेश हाथ पकडे -पकडे उठते  हुए ही बोले
" वही तो बार-बार एस दौर से गुजरना का स्त्री अस्मिता का अवमूल्यन ही तो हैं." सरला भी  हाथ छुड़ाते हुए बुनाई के फंदो को  सलाई से निकाल कर उधेडने लगी.
"अब ये क्यो खोलने लगी?"   सुदेश उठकर जाते हुए बोले
"और तुम कहा चल दिए" सरला ने पूछा
"ढेर सारे दीये  लेकर आता हूँ , सुंदर सुदंर रंगों से रंग कर मोतियों से सजाकर  जगमगाऊँगा  उन्हें"
" और अब  मैं नये फंदे बुनूंगी , नये डिज़ाइन  के साथ " 
दोनो की खिलखिलाहट से घर रौशन हो उठा
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(17). आ० अर्चना गंगवार जी 
उजाला

तत्व का हाथ थामे धुरी जैसे ही मॉल में प्रवेश की 
"सुनो न पिक्चर शुरू होने में अभी देर है चलो पहले मुझे एक अच्छा सा डिओ लेना है फिर कुछ खाते है। शर्मा सर की क्लास मे बैठ कर बोर हो गए कोर्स पूरा करने के चक्कर में एक साथ तीन क्लास बाप रे जान लेंगे बच्चे की "।
धुरी डिओ की भीनी भीनी खुसबू में डूब कर बारीकी से चयन कर रही थी तत्व की आँखे उतनी ही तल्लीनता से चश्मे के अंदर से धुरी को निहार रही थी ।धुरी ने डेविड ऑफ का डीओ अपने हाथ पर लगाकर तत्व के सामने कर दिया 
" देखो ये लिया है बताओ तो ज़रा कैसी है इसकी smell " । 
"तत्व ने धीरे से मुस्कराते हुए एक हल्का सा किस भी हथेली पर रखते हुए बोला" डिअर ये डिओ मेरी तरफ से गिफ्ट "।
"ओह्ह थैंक्स "
बोलते हुए धुरी खुश होकर मुस्कराते हुए आगे बड़ गई 
बिलिंग काउंटर पर बिल करते वक़्त तत्व की नज़र सामान पर पढ़ी उसने आँखों के इशारे से कंधे उचकाते हुए बादाम और अखरोट के बड़े पैकेट की तरफ देखते हुए पुछा ....
धुरी तत्व की आँखों की तरफ देखते हुए उसका चश्मा उतारते बोली " यार फिर तुम्हारे चश्मे का ग्लास गन्दा हो गया तुमको कैसे साफ़ दीखता होगा"
अपने रुमाल से साफ़ करते हुए 
" तुमने डिओ गिफ्ट कर दिया तो डिओ के बचे पैसो से मैंने पापा के लिए बादाम अखरोट ले लिए इस उम्र में उनकी आँखे, घुटनो और दिमाग के लिए बहुत ज़रूरी है"
कहते हुए धुरी ने तत्व की आँखों में चश्मा लगा दिया । साफ़ चश्मे से अब तत्व को धुरी का चेहरा नहीं चलते वक़्त पापा का चेहरा नज़र आने लगा.
इस बार जब घर गया था तो पापा जब अपनी आँखे डॉ की दिखाने गए तो वो भी साथ था डॉ ने पापा को बादाम और अखरोट के फायदे बताते हुए पापा को खाने के लिए कहा था ।पापा ने चलते वक़्त 1500 तत्व को अलग से दे दिए थे।
"ये कहते हुए इतनी पढाई करते हो आँखों पर बहुत जोर पड़ता। है बादाम और अखरोट ले कर खाना " ।
तभी धुरी के शब्द कानो से टकराये " वो हाथो को झकझोरते हुए बोली कहाँ खो गए अब साफ़ साफ़ दिख रहा है या नहीं बोलो तो .....

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(18).  आ० सीमा  सिंह जी 
वैशल्य

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“बी ए तो मैं हरगिज़ नहीं करूँगी!”
यह आवाज़ कानों में पड़ी तो निर्मला की नींद टूटी। सर्दियों की अलसाई सी सुबह, कुछ सफर की थकान और कुछ मायके की निश्चिन्तता! सबका मिला जुला प्रभाव कुछ ऐसा रहा कि निर्मला देर तक सोती रही थी।
“मैंने बता दिया न, समझ नही आ रहा तुझे?” अगली आवाज़ के साथ ही तन्द्रा भी टूट गई, ये स्वर उसकी भाभी का था।
बिस्तर से उठ वह आवाज़ की दिशा में बढ़ी तो भाभी देखते ही उठ खडी हुई,
“अरे जिज्जी! इतनी सर्दी में बिस्तर से क्यों निकल आईं आप? आप इधर आ जाओ, यहाँ बैठ जाओ!”अपने बिस्तर की रजाई ठीक करके उसे बैठाती हुई भाभी, अपने स्वर में नरमी भरते हुए बोली।
“क्यों बिगड़ रही हो बिट्टी पर सुबह सुबह?” निर्मला ने सीधे मुद्दे पर आते हुए पूछा।
“क्या बताएं जिज्जी, स्कूल के हर खेल कूद में हिस्सा लिया इसने हमने नहीं रोका। पर अब ज़िद पर अड़ी है कि सादा बीए नहीं करेंगे पी एड कॉलेज जाएंगे!” भाभी ने गुस्से से भर कर बिट्टी की नकल उतारते हुए कहा।
“तो उसमें क्या हर्ज है?”
“मगर कॉलेज यहाँ थोड़े ही है, बाहर जाना होगा।”
“तो क्या हुआ बबलू को भी तो भेजा है इसको भी भेज देना।"
“नहीं भेज पाएंगे हम। आपके भैया कह रहे हैं, बीए करना है तो करे नहीं तो हम ब्याह कर देंगे जो करना है अपने घर जाकर करे!”
“अपने घर जाकर करे का क्या मतलब है भाभी? निर्मला के मन के छाले फूट गए थे। “तुम बहुत अच्छा गाना गाती थीं, तुम बन गईं संगीतज्ञ? मुझे पेंटिंग का चाव था, मैं बन गई चित्रकार?” रजाई फेंककर घुटनों में मुंह छिपा कर सुबकते हुए बोली।
“पर जिज्जी…”
“भाभी! एक ही जीवन मिलता है, जी लेने दो बच्ची को!”
तभी बरामदे से एक पुरुष स्वर उभरा:
“बिट्टी! भर ले अपना फार्म बेटा! दफ्तर जाते वक्त रजिस्ट्री करता जाऊंगा।”
अंदर के कमरे में, कोने में चुपचाप अपनी रजाई में दुबकी बूढ़ी अम्मा ने गहरी सांस ली। उसकी छाती पर से बरसों से रखा पत्थर हट गया था, वह स्वयं को फूल सा हल्का महसूस कर रही थी।
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(19). आ० सुधीर द्विवेदी जी 
गद्दार 
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गद्दार ( उजाला विषयाधारित)

आधी रात मोबाइल की घण्टी घनघना उठी । उसनें घड़ी देखी रात के दो बज चुके थे। उसनें बिना नम्बर देखे फ़ोन काट दिया और करवट बदल कर सोनें की कोशिश करनें लगा। दो मिनट के सन्नाटे के बाद फ़ोन फिर घनघना उठा। झुँझला कर उसनें फ़ोन उठाया अस्पताल के रिशेप्सनिस्ट का फोन था "डॉक्टर! जहरीली शराब पीने से बहुत से लोगों की हालत बिगड़ गयी है। एक के बाद एक मरीज़ आ रहे हैं , मैंने सबको फोन लगाया पर कोई उठा नही रहा । प्लीज़ आप तो आ जाइए । "

"ओह..! " उसनें माथे पर छलछला आये पसीनें को पोंछने के लिए ज्यूँ ही चेहरे पर हाथ फेरा कलाई पर बंधे उस काले धागे को देख उसे कुछ याद आ गया। ये काला धागा अस्पताल प्रशासन की नीतियों के विरुद्ध डॉक्टरों की हड़ताल में शामिल होनें का प्रतीक था ।

"हुँह अब पता चलेगा इन अस्पताल वालों को ..." उसनें तकिये से अपना मुँह छुपा लिया । वह पसीनें से नहा उठा था जिससे हाथ में बंधा काला धागा पसीने से भीग कर उसकी कलाई में कसनें लगा था । उलझन में थोड़ी देर करवट बदलनें के बाद जब उससे न रहा गया तो उसनें साथी डॉक्टर को फोन मिलाया "मयंक अस्पताल में मरीजों की हालत बहुत खराब हो रही है। हम ये हड़ताल कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दें तो ?"

"पागल हुआ है क्या ? सो जा.." मयंक नें उसे समझाते हुए कहा ।

"लेकिन.."

'लेकिन-वेकिन कुछ नही.. हम यूनियन से गद्दारी नही कर सकते । " मयंक नें अब फ़ोन काट दिया था ।

"मैं भी अपने पेशे से गद्दारी नही कर सकता ।" मेडिकल की पढाई के दौरान लिए हुए संकल्प को याद करते हुए उसने उस काले धागे को फौरन कलाई से अलग किया और एप्रेन पहन अस्पताल की ओर जाते-जाते उसनें कई दोस्तों के नम्बर मिला डाले । धीरे-धीरे कई एप्रेनों के एकजुट होते  उजालों से अस्पताल जगमगाने लगा।


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(20). आ० कल्पना भट्ट ('रौनक़') जी 
तमाशा

"अरी उठ कलमुँहीI जल्दी उठ! तमाशे का बखत हो रहा है, और तू है कि अभी सोई पड़ी है। छुट्टी का दिन है, आज तो लोगो की खूब भीड़ होगी।"
माँ ने अपनी दस ग्यारह साल की बेटी को नींद से उठाने की कोशिश की।
"उफ़ माँ, सोने दो न थोड़ी देर और! पिछले एक हफ्ते से रस्सी पर चल चल कर पैरों में दर्द हो रहा है।" चादर से मुँह ढकते बेटी ने अलसाए से स्वर उत्तर दिया।
यह जवाब सुनकर गुस्साई माँ उसकी चादर को खींचकर हटाते हुए बोली:
"क्यों री किसी लाट साहब की औलाद है तू क्या? तेरा बाप कोई खज़ाना नहीं छोड़ गया था मेरे लिए। उठ जा वरना छड़ी से पीटूंगी तुझे।"
"ओह माँ! अभी तो दिन भी नहीं निकला" नींद से भरी आँखों को मसलती वह माँ से लिपट गयी।
“बिटिया जब तमाशे से पैसे मिलेंगे अपना दिन तो तभी निकलेगा न?"
"अच्छा कुछ खाने को दे दो माँ, बहुत भूख लगी है।" बच्ची ने उठते हुए कहा ।
"अभी कल रात ही तो तुझे रोटी खिलाई थी ,अभी कहाँ से लाऊँ कुछ ? आज तो मिट्टी का तेल भी खत्म हो गया है, आज अगर पैसे न मिले तो घर में अँधेरा रहेगा । " माँ की आँखें सजल हो उठीं
अपने भूखे पेट पर हाथ फेरते हुए, और अपनी टूटी फूटी झुग्गी की दशा देखते हुए उसने अपनी माँ से कहा:
"फिकर मत कर माँ! आज हम दोनों खूब मेहनत करेंगे और घर के लिए ढेर सारा उजाला लेकर आएंगे ।"
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(21). आ० मनन कुमार सिंह जी 
प्रदर्शन
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आज शहर में देश के प्रधान सेवक आये हैं।पूरी व्यवस्था चाक-चौबंद है।सफाई का विशेष ध्यान रखा गया है।उनका काफिला जिन सड़कों से गुजरा ,वे देश के उज्ज्वल भविष्य की ओर इंगित कर रही हैं।बिजली के खम्बे दिन को भी प्रकाशित हैं।
नारे लगे, .....जिंदाबाद, जिंदाबाद।प्रधान सेवक ने हाथ हिला हिलाकर आभार व्यक्त किया।काफिला सभास्थल पर पहुँचा।पुष्प मालाएँ भेंट की गईं।बालिकाओं ने आरती की,तिलक लगाये।भाषण शुरू हुआ--
-विकास,स्वच्छता,शिक्षा हमारे मूल मंत्र हैं।शिक्षा का भार मर्दों से ज्यादा औरतों पर है।इसलिए लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
'देश का नेता कैसा हो ?घरछोड़ू जैसा हो ' , नारा बुलंद हुआ,होता रहा।प्रधान सेवक जी की तकरीर जारी रही---
-हाँ तो मैं कह रहा था,शौचालय हमारी इज्जत से जुड़े हैं।अब इन्हें 'इज्जतघर' कहा जायेगा।भीड़ ने तालियाँ पीटी।जय-जयकार हुई।
-'बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ, हमारा ध्येय वाक्य है।बेटियों की शिक्षा-दीक्षा के लिए हम कुछ भी करेंगे।'
ढ़ेर सारी लोक लुभावन योजनाओं की घोषणा हुई,आधारशिलाएँ रखी गयीं।तुमुल उद्घोष के साथ सभा विसर्जित हुई। अब काफिला वापिस जा रहा था।बगल के इलाके से जिंदाबाद-मुर्दाबाद की आवाजें आ रही थीं।पूछने पर प्रधान सेवक जी को अवगत कराया गया कि पास की यूनिवर्सिटी में छात्र यूनियन के चुनाव की तैयारी चल रही है।परस्पर विरोधी गुट नारेबाजी कर रहे हैं।काफिले के पृष्ठ भाग के अधिकारी बात कर रहे थे--
-लाठी चार्ज हो चुका है वहाँ।
-इसकी क्या जरूरत थी?
-भीड़ बेकाबू हुई जा रही थी।
-लड़कियाँ भी घायल हुई होंगी।
-वो तो होना ही था।वे लीड रोल में थीं। छेड़खानी लड़की के साथ हुई थी न,' साथी अधिकारी की फुसफुसाती-सी आवाज आई।
-इसी उजाले की तलाश थी',बगल से गुजरते हुए बन्नो काका बोले।
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(22). आ० अनघा जोगलेकर जी 
लालटेन


मीनू बड़े दिनों से, सुदूर गांवों में जा, लोगों को पढाई का महत्त्व बता, बच्चों को पाठशाला भेजने की बात समझा रही थी। आज मेहनत सफल होते दिखी। गांव की पाठशाला बच्चों की आवाज़ से खिल उठी थी। लेकिन अंदर जाकर देखा तो सिर्फ लड़के। लड़कियां अभी भी घर की दहलीज पार कर ज्ञान के मंदिर तक नही पहुँच पाई थीं।
"अभी भी पूरा उजाला नही हुआ है। थोडा अँधेरा बाकि है" सोच, मीनू फिर अपने अभियान की लालटेन जलाये, ज्ञान का उजाला फ़ैलाने, गांव की ओर चल पड़ी।
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(23). आ० चन्द्रेश कुमार छतलानी जी 
रोशनी के बॉर्डर
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दरवाज़े के बाहर उसे खड़ा देखते ही मेजर ने अर्दली को उसे अंदर बुलाने इशारा किया। हाथ में एक फाइल लिए सिपाही की तरह चलने का असफल प्रयत्न करता हुआ वह वृद्ध अंदर आया और मेजर के सामने जाकर खड़ा हो गया। मेजर ने चेहरे पर गंभीरता के भाव लाकर पूछा, "कहिये?"

 वृद्ध ने हाथ में पकड़ी फाइल टेबल पर मेजर के सामने रख दी, लेकिन मेजर ने फाइल पर नज़र भी नहीं डाली, उसे इस बंद लिफाफे में छिपे मज़मून का पता था। वृद्ध की तरफ दया भरी नज़रों से देखते हुए मेजर ने उस फाइल पर हाथ रखा और कहा, "यह हो नहीं सकता, आपकी उम्र बहुत अधिक है। आर्मी आपको सिपाही के लिए कंसीडर नहीं कर सकती। हाँ! किसी अफसर के घर बावर्ची या पिओन..."

 "नहीं हुजूर... मुझे तो सिपाही ही बनना है..." उस वृद्ध का स्वर थरथरा रहा था, उसने आगे कहा, "मुझे बदला लेना है उससे जिसने मेरे बेटे की जान..." कहते हुए उसका गला रुंध गया।

 मेजर चुप रहा, वृद्ध थूक निगल कर फिर बोला, "हुजूर... मैं उस दुश्मन को पहचान लूँगा..."

मेजर के चेहरे पर चौंकने के भाव आये, लेकिन वह संयत स्वर में बोला, "जानते हैं बंकर में दिन हो या रात, अंधकारमय ही होते हैं। रातों में छुपकर बाहर निकलना होता है, भाग कर नीचे उतरना, सामान लेना फिर चढना। आप उन अंधेरों में दुश्मन को देख भी नहीं सकते, पहचानना तो दूर की बात।"

 "मैं नहीं मेरी आँखें... दुश्मन को पहचान सकूं इसलिए मुझ अंधे ने अपने शहीद बेटे की आँखें लगवा लीं हैं।" वृद्ध के स्वर में आतुरता थी।

 मेजर उसकी आँखों में झाँकते हुए खड़ा हुआ और उसके पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला,

“माफ़ कीजिये! लेकिन बॉर्डर पर हर रोशनी अंधेरों को चीर नहीं सकती...”
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(24).  आ० शिखा तिवारी जी 
रोशनी

"आओ मालती बहन, इधर बैठो।"  हेमा ने अपनेपन से कहा।मालती कुछ सकुचाई सी बैठ गईं।  "आप... कितने साल से इधर...?"   मालती ने पूछा।  "कौन मैं? मैं तो यहाँ की प्रारंभिक सदस्य हूँ।"  उसने संतोष के साथ कहा।
मालती की निगाहें उस वृद्ध आश्रम का जायजा ले रही थीं। 
"लीजिए चाय!" हेमा ने एक गिलास मालती की तरफ बढ़ाया और दूसरा स्वयं के लिए रखा। "कैसी हो बहन" चाय लाने वाली महिला से हेमा ने कहा। उसने कहा "बढ़िया हूँ ।"
और एक मुस्कान के साथ  आगे बढ़ गई।
वो आप देख रही हैं जो महिला एक वृद्ध पुरुष को कपड़े पहनने में सहायता कर रही है?"   हेमा ने नजर के इशारे से कहा।  "वही है यहाँ की संस्थापक। और उस वृद्ध के शहीद पुत्र की विधवा। अपने ससुर की पूरी देखभाल करके भी बाकी के वृद्धों को शिकायत का मौका नहीं देती। पति के बाद न दूसरी शादी की, न बूढ़े ससुर को अकेला छोड़ा।"
हेमा ने उस ओजपूर्ण   महिला के चेहरे पर स्नेही नजर डाली।  "आईए हम वहाँ बैठते हैं।" हेमा उठकर बोली। "यहाँ सूरज का ताप जला रहा।
दोनों साथ ही उठ गई। 
"यहाँ सब संतान जले हैं।"  हेमा ने शून्य में ताकते हुए कहा।
"संतान जले?" मालती ने आश्चर्य से पूछा।
"हाँ दूध का जला होता है न।" हेमा ने कुछ व्यंग्य और शरारत से कहा। "गर्भ में आने से लेकर अपने पैरों पर खड़ा होने तक जो संतान एक भी दिन माता पिता के बगैर न बिता सके, वो जब खड़े होकर चलना सीख जाता है तो......"
मालती चुपचाप हर तरफ देख रही थी।
"अच्छा  ये बताईए  आपने तो बताया था कि आपकी बेटी आपका पूरा ख्याल रखती है? फिर आप यहाँ...?"
" बेटी की इच्छा थी समाज सेवा की। मगर मैं ही राजी न थी।  बस बिदा करके गंगा नहाने की धुन सवार थी। कुछ दिनों से अखबार में  उसकी प्रशंसा पढ़ रही हूँ।  अब मन करता है उसके काम में हाथ बँटाऊं।"
"अच्छा! क्या करती है आपकी बेटी?"
 हेमा ने  पूछा।
मालती  धूप से हटकर एक घने पेड़ की छाया तले बैठ चुकी थी।
"हाँ वो है न ...  आश्रम  की युवा संस्थापक मेरी बेटी रोशनी।"
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(25). आ० अंजना बाजपेई जी 
सुनहरी शाम

इकलौते बेटे रजत और पिता के बीच नौकरी और व्यापार में चुनाव को लेकर चली आ रही तनातनी बहस के रूप में यूँ ही खत्म हो गई और रजत रूठकर दोस्तों के पास चला गया ।
पार्क मेंं रजत के पास बैठे दोस्त कई दिनों बाद अपना फेवरिट चाट का ठेला आते देख जैसे उछल पड़े । बाहर पहुँच कर वे कुछ चौंक गए । ठेला तो वही, पर दुकानदार कोई और था ।
उस युवक को देख उनके मुँह से निकला-"क्यों भाई , तुम आये हो, और वो चाचा कहाँ हैं इतने दिन से...।" "हाँ भईया, मेरे बाबूजी की तबियत अचानक बहुत खराब हो गई थी। इसीलिए
मैंने अब ये काम चलाने का फैसला लिया है...।" कुछ परेशान स्वर में जवाब देकर वो जल्दी-जल्दी चाट बनाने लगा ।
"पर तुम तो शायद पढ़ाई कर रहे थे..।" एक दोस्त ने पूछ लिया तो वह बोल पड़ा-" तो क्या हुआ, पिता जी ने कम पढ़े-लिखे होकर इतना व्यापार और व्यवहार बनाया है..., तो मैं अपने ढंग से काम बढ़ाऊँगा ...। धीरे-धीरे शायद कुछ और लोगों को भी काम मिल जाय...।"पूरे आत्मविश्वास से मुस्करा कर वो आगे बढ़ गया ।
आगे बढ़ते ठेले के साथ रजत के दिमाग में कई सवाल खड़े होते जा रहे थे..। 'पढ़ाई केवल नौकरी के काम आती है क्या...,एक युवक को चाट का ठेला संभालने में शर्म नहीं , तो उसे कारखाना संभालने में क्यों.., क्या पिताजी के बाद कारखाना बंद हो जायेंगे...और उनकी मेहनत बेकार जायेगी...
कर्मचारी बेरोजगार हो जायेंगे..।'
इस हलचल से रजत तुरंत फैसला तो न ले पाया । पर उसने माँ को फोन किया-"पापा से बता दो, मैं वहाँ अा रहा हूँ..., कुछ
बात करनी है..।"
पहली बार अपने मन से कारखाना जाने की बात पर माँ की आँखे चमक उठी । रजत के बदले स्वर में उन्हें एक उम्मीद नजर आई । फोन करती माँ को वो शाम सुबह से ज्यादा सुनहरी नजर आ रही थी ।
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(26). आ० सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी 
ममता की काजल

अगर वरुण तेरा यहीं हाल रहा तो कह देती हूँ, इस घर मे शहनाई नहीं गूँजने वाली। जो भी आता है वह एक ही सवाल पूछता है कि आपका बेटा करता क्या है?" माँ वरुण के घर मे प्रवेश करती ही बोल पड़ीं।

वरुण माँ का माथा चूमते हुए बोला "क्यों आप मन छोटा करती हो मम्मी? कोई न कोई तो होंगा जो मुझे समझेगा।"

माँ झट से उसको दूर करते हुए चीखी- "ख़ाक समझेगा कोई। ऐसा काम जिसमे कमाई का तो छोड़ो,उल्टे घर से ही लगता हो, उसकी तारीफ कौन करेगा? और अगर कोई तारीफ कर भी दे, तो कम से कम वह अपनी बिटिया की शादी तुझ जैसे लड़के से तो नहीं करेगा जिसकी कमाई कुछ न हो।"

वरुण अचानक बहुत गम्भीर होकर माँ को कुर्सी पर बिठाते हुए बोला -"मम्मी मुझे दुःख है कि मैं उस तरह का बेटा नहीं बन सका जैसा आप चाहती थीं। पर मम्मी ! अगर आप ने मुझे गोद न लिया होता तो न जाने मैं किस अंधेरे में भटक रहा होता। यह बात बार बार मेरे जेहन में गूँजती रहती है। सिर्फ अपने लिए जीना मुझे धिक्कारता है। इसलिए मैंने भी अपने पास की झुग्गियों के बच्चों को गोद ले लिया है, ताकि उनको साक्षर कर इस काबिल बना सकूँ कि वे भी खुद के पैरों पर खड़ा हो सकें।

माँ बात बीच मे काटते हुए बोली-"पर बेटा-अपने घर मे भी तो उजाला आना चाहिए। सामाजिक सरोकारों के साथ घर की भी कुछ जिम्मेदारियां होती हैं।"

वरुण माँ के गोद मे सर रखते हुए बोला -"समझता हूँ मम्मी! और मैं इतना भी नक्कारा नहीं कि घर के जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लू। भले मैं घर मे वह उजाला न ला सकूँ, जिसकी आप कामना करती हैं, पर इतने घरों में जब दीपक एक साथ जलेंगे, तो उसकी रोशनी से अपना घर भी जगमगा उठेगा"।

माँ आज बेटे को सचमुच बड़ा होता देख ममता का काजल लगा दी, ताकि दुनिया की नजर न लगे।
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(27). आ० इंद्र विद्यावाचास्पति तिवारी जी 
सुख का अनुभव

सुखी जीवन का महत्व रामेष को तब अनुभव हुआ ज बवह अपने जीवन की आखरी सांस ले रहा था। उसे लगा िकवह अब कभी नहीं बच सकता है तभी उसके पास वह आ गया जिसके लिए वह जीवन भर तड़पता रहा था। उसके मुंह से बात नहीं निकल रही थी। बड़ी मुष्किल से बोल सका था वह ‘बेटा’। इस बात को कहने के लिए वह कब से तरस रहा था।
रामेष ने अपने जीवन में सुख का मुंह नहीं देखा वह जबसे बड़ा हुआ हमेषा उसे किसी न किसी मुसीबत का सामना करना पड़ा। कभी मां का गम तो कभी पिता की मृत्यु का एहसास उसे परेषान करता रहा था। लेकिन वह तब टूट गया था जब उसका 10वर्षीय बेटा मेले में से गायब हो गया था। उसे उसने खूब ढंूढा लेकिन वह न मिल सका था। आज उसके पास वह अपने आप आ गया था। उसके अनुसार उसे मेले में उनका साथ छूट जाने पर एक आदमी अपने साथ लेकर चला गया था क्योंकि वह उससे अपने बारे में ज्याद े नहीे बता सका था। फिर ज बवह इधर आया था तो उसे अपने घर की याद आई और वह अपने घर आ गया था।
आज उसका पिता बीमार था। उसके पास परिचर्या के लिए कोई पारिवारिक सदस्य सिवाय उसकी मां के कोई नहीं था। वही दवा दारू का प्रबंध कर रही थी। शारीरिक व बाजार का सारा कार्य उसके मां को ही करना पड़ रहा था। पिता की दषा देखकर वह द्रवित हो गया । मां से चिन्ता न करने का ढाढस देकर वह पिता की तीमार दारी में लग गया। उसने उन्हें आष्वासन दिया कि उसक पोष्य पिता को उसके अपने घर आने -जाने में एतराज नहीं है वह तो काफी दयालु व्यक्ति हैं। उसके पालन-पोषण में कोई कसर नहीं रखी। दवा का इंतजाम करके वह अपने पोष्य पिता के पास गया और जानकारी देकर तथा उन्हें अपने साथ लेकर पुनः वापस आ गया। पोष्य पिता ने उसके पिता को देखा और गले लग गये। दवा के प्रभाव से उनका रोग कम हो गया। फिर कुषल मंगल में लग गये। पिता ने अपने पुत्र को भर आंख देखा और उ नकी आंख भर आई।
बिछुड़न, पिता, पोष्य पिता, मिलन, सुख के अश्रु
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(28). आ० चित्रा राणा जी 

पर्यावरण दिवस आयोजन मंच पर नेता जी के परिचय में पिछले वृक्षरोपण से गांव और आसपास में आए हरित बदलाव के कसीदे पढ़े जा रहे थे।पहले और बाद की तस्वीरे दिखाई जा रही थीं।हर तस्वीर पर तालियों की गड़गड़ाहट और कुर्सी पर नेताजी का कद बढ़ता जा रहा था।
बीच में बस राकेश के सहयोग की बात ने ही थोड़ा मजा किरकिरा कर दिया।
नेता जी और राकेश कृष्ण सुदामा की अंतर वाले दोस्त थे बस फर्क ये था ये कृष्ण इस सुदामा को अपने नाम पर धब्बा मानता था इसलिए दोस्ती की चर्चा तक ना आने देता।
भाषण में नेताजी ने बस इतना ही कहा कि “वृक्ष ही हमारी पृथ्वी का उजाला है, इनसे जीवन है, इनके बिना सूर्य होते हुए भी घोर अंधेरा ही रहेगा। कम बोलते हुए मैं अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहूँगा। धन्यवाद।”
इतना कह सभी वृक्षारोपण के लिए चल दिए।
वृक्षरोपण कर जहाँ मंत्री जी भोज की तरफ चल दिये, वहीं राकेश ने बच्चों से कहा,
"जल्दी करो बच्चों ,मुझे घर जल्दी निकलना है।"
नेता जी व्यंग करते हुए बोले,” राकेश जी, कहाँ चल दिये, रुकते तो देखते जीवन भर दिए की तरह टिमटिमाने से आगे जहाँ और भी हैं।”
राकेश ने मुस्कुरा कर कहा, “निरंतर उजाला चाहने वालों कोे निरंतर तेल भी देना होता है।” बच्चे राकेश के साथ पानी भरी बल्टियाँ लिए वृक्षरोपण हुए मैदानों की ओर चल दिए।
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(29). आ० वीरेन्द्र वीर मेहता जी 
जीत की ओर - 'द सर्वाइव'
.
"जाके पैर न फ़टी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई।" अपने आसुओं को जज्ब करती हुयी वह मन ही मन बुदबुदा उठी।
जब से घर लौटी थी वह, अंधेरें में ही सिमट गयी थी। कमरे की खिडक़ी पर लगे शीशो को भी, अखबारी कागजों से बंद कर बाहर की रौशनी को अंदर आने से रोक दिया था उसने। अपनों की नजर में हमदर्दी थी या बेचारगी, पता नहीं। लेकिन दोनों ही बातें उसके मन को आहत कर रही थी। अपनों की सांत्वना उसको कुछ शांत तो कर रही थी लेकिन घँटों सोचने के बाद भी, 'जो हुआ उसको स्वीकार करे या प्रतिकार करे' का निर्णय वह नहीं कर पा रही थी। और सबसे बड़ा प्रश्न था।......
"दूसरों का सामना कैसे करूँ, जब मैं खुद का सामना ही नहीं कर पा रही हूँ।" सोचते हुए वह खिड़की में लगे शीशे के सामने आ खड़ी हुई।
"क्या अपराध था मेरा?"
"यही.... कि तुमने मेरी होने से मना कर दिया।" सहसा ही धुंधले शीशे में 'उसका' दुष्ट चेहरा कुटिल मुस्कान लिये आ खड़ा हुआ। "और अब तुम्हारा कोई होना भी नहीं चाहेगा।"
"नहीं ऐसा नहीं होगा।" वह सहम कर पीछे हट गयी, मन का अंधेरा और गहराने लगा।
कुटिल मुस्कान ठहाकों में बदलने लगी। एकाएक भीतर का अँधेरा आक्रोश बन शीशे से जा टकराया और शीशा टूटकर बिखर गया। शैतान कई टुकड़ो में बंट कर बिखर गया। शीशे पर लगा अखबार आधा फटने के बाद हवा में फ़ड़फ़ड़ाने लगा और टूटी खिड़की से छनकर आती रौशनी ने सहज ही उसकी आखों को उजाले से भर दिया, उसका तन-मन आलोकित होने लगा था। उसकी आँखें देर तक खिड़की पर लगी रही। उसका आत्मविश्वास अनायास ही लौटने लगा था और कुछ ही लम्हों में वह एक निर्णय कर चुकी थी। उसने हाथ बढ़ाकर उस फ़टे हुए अखबार को खींच कर मुट्ठी में भर लिया जिस पर फ़ोटो सहित खबर छपी हुयी थी...... "ऐ कैफ़े रन बाई एसिड अटैक सर्वाइववर्स।"
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(30). आ० महेंद्र कुमार जी 
वेक्सीन
डेविड और पीएम हाउस के बीच बस अब थोड़ी सी ही दूरी बची थी।
उधर देश की सबसे बड़ी फार्मास्यूटिकल कम्पनी के बंगले पर जहाँ देश के सभी बड़े दवा व्यापारी मौजूद थे, अँधेरे के बादल साफ़ नज़र आ रहे थे। "अगर उसने वो फ़ॉर्मूला प्रधानमन्त्री को दे दिया तो हम सब तो रोड पर आ जाएँगे।"  
डेविड एक स्वतन्त्र शोधार्थी थे जिन्होंने एक ऐसे टीके का आविष्कार किया था जिससे अब तक की ज्ञात सभी बीमारियों से पल भर में छुटकारा पाया जा सकता था। बस एक बार बच्चे को यह टीका लगा दिया और वह आजीवन रोगों से मुक्त। डेविड का एकमात्र उद्देश्य जन कल्याण था। इसलिए उन्होंने इस फ़ॉर्मूले को पेटेंट कराने की जगह प्रधानमन्त्री को देने की सोची जो अब तक के सबसे ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले प्रधानमन्त्री थे। इसके लिए उन्होंने प्रधानमन्त्री को एक पत्र भी लिखा था जिसमें इस विषय की विस्तृत जानकारी थी सिवाय फ़ॉर्मूले के। पीएम हाउस से कॉल आने के बाद आज वो उसी फ़ॉर्मूले को देने जा रहे थे।
"अरे कोई ज़रूरी है उसने ऐसे किसी टीके की ख़ोज की हो। साला झूठ भी तो बोल सकता है।" मोटे व्यापारी ने अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कहा।
"हाँ। ऐसा कैसा हो सकता है कि एक ही टीका सभी बीमारियों से लड़े?" अन्य लोगों ने भी अपनी शंका ज़ाहिर की।
अब तक ख़ामोश खड़े सफ़ेद कोट वाले उस व्यक्ति ने जिसके बंगले पर आज ये लोग इकठ्ठा हुए थे कहा, "हो सकता है। मैंने उस ख़त की कॉपी विशेष सूत्रों से प्राप्त कर अपनी रिसर्च टीम को दिखायी है।"
"सर, तब तो हम लोग बर्बाद हो जाएँगे।" सभी समवेत स्वर से बोल उठे। "देश-विदेश में हमने जो इतने बड़े-बड़े प्लांट लगा रखे हैं, जो इतना बड़ा बिज़नस फैला रखा है उसका क्या होगा?"
"शायद यही समय हो नए सूरज को सलाम करते हुए किसी दूसरे धन्धे के बारे में सोचने का।" उसने अपनी सिगार जलाते हुए कहा।
डेविड पीएम हाउस पहुँचने ही वाले थे कि तभी एक अनियन्त्रित ट्रक आया और उन्हें रौंदते हुए निकल गया।
"बधाई हो! काम हो गया।" सफ़ेद कोट वाले के फ़ोन से आवाज़ आयी। "अच्छा हुआ, नहीं तो इस बार चुनाव में आपकी पार्टी रोड पर नज़र आती मिस्टर पीएम। हा हा हा..."
अँधेरे के बादल छंटते ही बंगला पहले की तरह रौशनी से जगमगाने लगा।
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इस बार कोई रचना निरस्त नहीं की गई है, यदि कोई रचना सम्मिलित होने से रह गई हो तो तुरंत सूचित करे.

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यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित.

बहुत बहुत बधाई सर एक और सफल आयोजन की।
ओबीओ लघुकथा गोष्ठी 30के सफल आयोजन और त्वरित संकलन घोषित करने के लिए सादर हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी। मेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया। सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

मैं सभी साथियों की टिप्पणियों व गुरूजन के मार्गदर्शन के साथ एतद द्वारा अपनी संशोधित रचना प्रेषित कर रहा हूं अवलोकनार्थ। यदि यह सही हो, तो कृपया संकलन में आठवें स्थान पर प्रतिस्थापित कर दीजिए।
(8)


'हैरान हामिद' (लघुकथा) :

उस दिन दो विभिन्न विचारधाराओं के अख़बारों में हामिद की फोटो के साथ उसके स्कूल के कार्यक्रम संबंधित दो समाचार छपे थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से समाचार को चटपटा बना कर कुछ हिन्दूओं और मुसलमानों की राय भी प्रकाशित की थी। उन सबको पढ़ने के बाद हामिद के अब्बू ख़ुश होने के साथ ही कुछ-कुछ हैरान भी थे।

किंतु हामिद तो अतीत में खो चुका था। अभिनय में रुचि होने के कारण कितने शौक़ से इस बार उसने दशहरे के दो दिन पहले स्कूल में आयोजित 'रामलीला' में श्रीराम की भूमिका के लिए ज़िद करके भाग लिया था और बेहतरीन प्रस्तुति भी दी थी। वह कितने अद्भुत तज़ुर्बे से गुज़रा था। कार्यक्रम के दो दिन पहले से ही बाज़ार से श्रीराम की फैंसी ड्रेस लाकर संवादों की रिहर्सल करते समय दादा जी की नाराज़ घूरती निगाहें, चाचा के बच्चों को उस दिन स्कूल न भेजना और स्कूल में कुछ शिक्षकों व ईर्ष्यालू छात्र-छात्राओं की घूरती निगाहें और उपेक्षा उसके मन में अंकित हो चुकी थीं।

"कहां खो गए तुम!" अब्बू की आवाज़ उसे वर्तमान में ले आई। "इन तस्वीरों में सीताजी तुमसे इतने दूर क्यों बैठी हैं?" उन्होंने पूछा।

"अब्बू, मेरे साथ कोई सीता जी की भूमिका करना नहीं चाह रहा था, मुश्किल से तो ये तैयार हुई थी!" इतना कहकर हामिद फिर सोचने लगा- "सीताजी को कितने शानदार तरीके से सज़ा कर तैयार किया गया था और बाक़ी सभी कलाकारों को भी! कैसे उसने कम समय में स्वयं को ठीक-ठाक तैयार किया था बिना शिक्षकों की मदद के!"

"बेटा, तुम अपनी अदाकारी से ख़ुश तो हुए न! इतना क्या सोच रहे हो" अब्बू उसकी मनोदशा समझ रहे थे।

जवाब में हामिद ने कहा -"अब्बू स्कूल में रामलीला खेलते समय सबकी निगाहें या तो सीताजी पर टिकी हुई थीं या दहाड़ रहे रावण पर या खुर्राटे भर रहे कुम्भकरण पर ! उन्हें देखकर, उनके संवाद सुनकर सब लोग तालियां बजा रहे थे या उनके संवादों पर ठहाके लगा रहे थे। सब उनकी ही फोटो खींच रहे थे। मेरी तरफ़ तो दर्शकों ने तभी ध्यान दिया, जब मैं हिरण पकड़ने गया और जब मैंने वध किए!" इतना कहकर उसे याद आया कि जितनी तेजी से तालियों और जय श्रीराम की आवाज़ें गूंजी थीं, उतनी ही जल्दी शांत भी हो गईं थीं। फिर सबका ध्यान केवल जलते हुए रावण और फूटते पटाखों पर ही था। फिर धुआं फैलने लगा था।

"अब्बू कुछ समझ में नहीं आ रहा था। रामलीला के बाद सब बच्चे शोर-शराबा करने लगे थे।" हामिद ने अब्बू के हाथ से अख़बार लेते हुए कहा-"किसी ने भी किसी कलाकार की तारीफ़ तक नहीं की सिवाय प्राचार्य के। सब लोग मोबाइलों पर लिए गए फोटो की तारीफ़ें ज़रूर कर रहे थे।"

"ऐसा ही होता है, बेटा, सबक़ कोई नहीं सीखता, मज़े सब लेते हैं!"

अब्बू की कही बात पर ग़ौर किये बिना हामिद अख़बारों में छपी तस्वीरों को देखते हुए समाचार पढ़ने लगा। अपने पड़ोसियों की घूरती नज़रें और दादाजी की बुतपरस्ती, शिर्क और काफ़िर वाली बातें याद आने पर वह दुखी हो जाता, किंतु अपने अब्बू से सुनी नये ज़माने वाली बातें याद आने पर उसका चेहरा खिल उठता। उसके कुछ दोस्तों ने भी तो उसे अपनी टोली में शामिल कर रावण दहन के दिन उसे आमंत्रित किया था।

हामिद को समाचार पढ़ते देख अब्बू ने फिर से उसे शाबाशी देते हुए कहा- "हैरान मत हो! जहां रौशनी मिले और जो रौशनी फैलाये केवल ऐसे ही अख़बार और मीडिया पर और ऐसे ही लोगों पर ग़ौर करो, बाक़ी छोड़ो; हम सही ट्रैक पर हैं और रहना चाहिए!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

यथा निवेदित तथा प्रस्थापित.

सर्वप्रथम आयोजन समाप्त होने के साथ ही संकलन को प्रस्तुत करने और आयोजन की सफलता के लिये आदरणीय योगराज प्रभाकर सहित ओ बी ओ आयोजन सीमिति को हार्दिक बधाई, साथ ही सभी भागीदार कथाकारों को भी हार्दिक बधाई। कुछ निजि कारणों से मैं इस बार न तो आयोजन में अंतिम समय तक हिस्सा ले पाया था और न ही किसी मित्र की कथा पर कोई टिप्पणी कर पाया था। अभी कुछ समय पहले ही घर लौटने (कहीं बाहर गया था) पर आयोजन समाप्ति में समय शेष देखकर अपनी रचना पोस्ट करने का मोह त्याग नही पाया, जिसे मैंने फाइनल टच पर कल ही छोड़ा था। नही जानता था कि रचना कैसी बनी है लेकिन मेरी रचना को आयोजन में स्वीकृत करके आयोजन सीमिति ने जो विश्वास मुझमे जताया है। उसके लिये हार्दिक आभार। अंत समय में मेरी रचना पर टिप्पणी करने वाले गुणीजन साथियो कल भी तहे दिल स आभार। सादर।

आ. वीरेन्द्र वीर मेहता जी, आपकी लघुकथा आयोजन के अन्त समय में पोस्ट होने (और तत्समय मेरी अनुपलब्धता) के कारण मैं वहाँ पर अपनी प्रतिक्रिया नहीं दे पाया. सच कहूँ तो आपने प्रदत्त विषय पर ज़बरदस्त लघुकथा लिखी है. इसकी जो बात मुझे सबसे अच्छी लगी, वह है इसका प्रस्तुतीकरण. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं उन्हें देख लीजिएगा. सादर.

आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आदाब,
लघुकथा गोष्ठी के अंक-30 के त्वरित प्रकाशन के लिए आपको हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ । यह अंक भी अपने पिछले अंक की भाँति धमाकेदार , दमदार और प्रेरणादायक रहा । इस आयोजन में कुल 30 लघुकथाकारों ने अपनी ज़ोरदार प्रस्तुति देकर सिद्ध कर दिया कि देश में लघुकथा का भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है और हम लघुकथाकारों के हाथ में ही आगामी भविष्य है । इसमें कोई शक नहीं है ।
जहाँ तक लघुकथा की बात है तो इस अंक में कुछ लघुकथाओं के विषय बहुत अलग थे जो बहुत ही अच्छी है । घिसे-पिटे कथानक से हटकर अच्छे कथानक पर लघुथाएँ उभरकर आई ।
संकलित अंक में निम्न परिवर्तन करने की कृपा करें:-
(1") "मॉम क्या मैं अपना निर्णय खुद नहीं ले सकती ?"
(2) पोस्ट ग्रेज्युएट हूँ । (बालिग हूँ हटा दें)
(3) कोर-कसर
(4) मेरे अंदर अंधकार का एक घेरा है
पुनश्च बधाई स्वीकार करें ।

यथा निवेदित तथा संशोधित.

आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई साहब, हर बार की तरह इस बार भी यह आयोजन बहुत ही उम्दा व शानदार रहा हैं. इस बार इस में एक से बढ़कर एक लघुकथाएं आई है. जिन पर आप का उम्दा मार्गदर्शन प्राप्त कर ने के बाद, यानि संशोधन उपरांत लघुकथाओं में अच्छा निखार आएगा . ऐसा मेरा विश्वास है . इस के साथ ही आप ने जिस तीव्रता से संकलन प्रस्तुत किया है, वह हमेशा की तरह काबिले तारीफ है . जिस की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है. बहुतबहुत बधाई आप को इस सफल आयोजन के लिए. सभी रचनाकार साथियों को हार्दिक शुभकामनाएं.

अहा ! त्वरित संलन हेतु दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें सर ! आद. रवि सर के सुझाए सुधार के मुताबिक़ कथा में कुछ बदलाव किये है . आपसे अनुरोध है इसे संकलन में प्रतिस्थापित करने की कृपा करें

गद्दार ( उजाला विषयाधारित)

आधी रात मोबाइल की घण्टी घनघना उठी । उसनें घड़ी देखी रात के दो बज चुके थे। उसनें बिना नम्बर देखे फ़ोन काट दिया और करवट बदल कर सोनें की कोशिश करनें लगा। दो मिनट के सन्नाटे के बाद फ़ोन फिर घनघना उठा। झुँझला कर उसनें फ़ोन उठाया अस्पताल के रिशेप्सनिस्ट का फोन था "डॉक्टर! जहरीली शराब पीने से बहुत से लोगों की हालत बिगड़ गयी है। एक के बाद एक मरीज़ आ रहे हैं , मैंने सबको फोन लगाया पर कोई उठा नही रहा । प्लीज़ आप तो आ जाइए । "

"ओह..! " उसनें माथे पर छलछला आये पसीनें को पोंछने के लिए ज्यूँ ही चेहरे पर हाथ फेरा कलाई पर बंधे उस काले धागे को देख उसे कुछ याद आ गया। ये काला धागा अस्पताल प्रशासन की नीतियों के विरुद्ध डॉक्टरों की हड़ताल में शामिल होनें का प्रतीक था ।

"हुँह अब पता चलेगा इन अस्पताल वालों को ..." उसनें तकिये से अपना मुँह छुपा लिया । वह पसीनें से नहा उठा था जिससे हाथ में बंधा काला धागा पसीने से भीग कर उसकी कलाई में कसनें लगा था । उलझन में थोड़ी देर करवट बदलनें के बाद जब उससे न रहा गया तो उसनें साथी डॉक्टर को फोन मिलाया "मयंक अस्पताल में मरीजों की हालत बहुत खराब हो रही है। हम ये हड़ताल कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दें तो ?"

"पागल हुआ है क्या ? सो जा.." मयंक नें उसे समझाते हुए कहा ।

"लेकिन.."

'लेकिन-वेकिन कुछ नही.. हम यूनियन से गद्दारी नही कर सकते । " मयंक नें अब फ़ोन काट दिया था ।

"मैं भी अपने पेशे से गद्दारी नही कर सकता ।" मेडिकल की पढाई के दौरान लिए हुए संकल्प को याद करते हुए उसने उस काले धागे को फौरन कलाई से अलग किया और एप्रेन पहन अस्पताल की ओर जाते-जाते उसनें कई दोस्तों के नम्बर मिला डाले । धीरे-धीरे कई एप्रेनों के एकजुट होते  उजालों से अस्पताल जगमगाने लगा।

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी – 30,  के सफल आयोजन, संचालन एवम त्वरित संकलन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।

साथ ही मेरा नम्र निवेदन है कि मेरी निम्न संशोधित लघुकथा को संकलन में स्थान देने की कृपा करें।

 लघुकथा  –   रोशनी की किरण -

 प्रिय सुमित्रा,

 मालूम नहीं, अब तुम्हें मेरा प्रिय लिखना भी पसंद आयेगा कि नहीं। मुझे भी कई बार सोचना पड़ा कि प्रिय लिखूं कि नहीं। सच में मुझे खुद भी यक़ीन नहीं कि इस अलगाव के बाद मुझे प्रिय लिखने का अधिकार है भी कि नहीं।

आज तुम्हें अपनी माँ के घर गये हुए पूरा डेढ़ महीना हो गया। मैंने कई बार तुम्हें फोन किया लेकिन तुम्हारा मोबाइल भी बंद रहता है, शायद तुमने नया नंबर ले लिया होगा?

मुन्ना के स्कूल से भी फ़ोन आया था, उसकी पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा है।

पिछले दस वर्ष में बहुत बार अकेले रहना पड़ा है लेकिन इस बार अखर गया क्योंकि तुम झगड़ा करके गयी थीं। तुम्हारे जाने के बाद लगभग आठ दिन तो मैं घर ही नहीं आया क्योंकि अकेले घर में एक रात गुजारना भी अपने आप को यातना देना जैसा लगता थ। जो घर कभी मेरे लिये सबसे ज्यादा सुक़ून देने वाली जगह थी, अब वही घर काटने को आता था।

तुम तो शायद यह भी भूल गयीं कि हम दोनों ने प्रेम विवाह किया था। मेरे प्रेम का अच्छा सिला दिया तुमने । वैसे प्रेम तो मुन्ना के जन्म के बाद,  हम दोनों के बीच मात्र एक शब्द बन कर ही रह गया था। क्योंकि तुम मुन्ना को एक मिनट को भी अपने से ज़ुदा नहीं कर पाती थी और मेरी ज़रूरतें तुम्हारे लिये कोई मायने नहीं रखती थीं।

मैं मानता हूँ कि मुझे तुम पर हाथ नहीं उठाना चाहिये था, वह मेरी भूल थी, मगर तुमने भी तो बेहद घटिया किस्म का इल्ज़ाम लगाया था। भला कोई भी शादी शुदा और एक बच्चे का बाप , एक दस साल की लड़की के साथ... छि मुझे तो लिखने में भी घिन आती है। हाँलांकि यह भी सच है कि वह सोच तुम्हारी नहीं थी। तुम्हें गुमराह किया गया था। तुम लोगों के बहकावे में जल्दी आ जाती हो।

खैर, अब जब तुमने अपना अलग रहने का फ़ैसला मेरे ऊपर ज़बरन थोप ही दिया है तो मैंने भी एक निर्णय ले लिया है। जिन माँ बाप को तुम्हारे लिये छोड़ आया था , अब वापस उनके पास जा रहा हूँ और शेष जीवन उनकी सेवा करूंगा। शायद मेरी इस कोशिश से उन बूढ़ी आँखों की खोई चमक वापस आ सके।

तुम्हारा - प्रदीप 

मौलिक एवम अप्रकाशित

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित आ० तेजवीर सिंह जी.

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