परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 169 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का मिसरा जनाब 'क़मर' जलालवी साहिब की ग़ज़ल से लिया गया है |
'ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को'
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन
1212 1122 1212 22/112
मुज्तस मुसम्मन मख़्बून महज़ूफ़ मुसक्किन
रदीफ़ -- को
क़ाफ़िया : (आने की तुक) फ़साने, आशियाने, बनाने, दिखाने, ख़ाने आदि....
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन होगी । मुशायरे की शुरुआत दिनांक 26 जुलाई दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 27 जुलाई दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" में प्रति सदस्य अधिकतम एक ग़ज़ल ही प्रस्तुत की जा सकेगी |
एक ग़ज़ल में कम से कम 5 और ज्यादा से ज्यादा 11 अशआर ही होने चाहिए |
तरही मिसरा मतले को छोड़कर पूरी ग़ज़ल में कहीं न कहीं अवश्य इस्तेमाल करें | बिना तरही मिसरे वाली ग़ज़ल को स्थान नहीं दिया जायेगा |
शायरों से निवेदन है कि अपनी ग़ज़ल अच्छी तरह से देवनागरी के फ़ण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें | इमेज या ग़ज़ल का स्कैन रूप स्वीकार्य नहीं है |
ग़ज़ल पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे ग़ज़ल पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं | ग़ज़ल के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें |
वे साथी जो ग़ज़ल विधा के जानकार नहीं, अपनी रचना वरिष्ठ साथी की इस्लाह लेकर ही प्रस्तुत करें
नियम विरूद्ध, अस्तरीय ग़ज़लें और बेबहर मिसरों वाले शेर बिना किसी सूचना से हटाये जा सकते हैं जिस पर कोई आपत्ति स्वीकार्य नहीं होगी |
ग़ज़ल केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, किसी सदस्य की ग़ज़ल किसी अन्य सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी ।
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
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मंच संचालक
जनाब समर कबीर
(वरिष्ठ सदस्य)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय लक्ष्मण जी, उत्साहवर्धन के लिए बहुत धन्यवाद आपका। सादर
सदा छिपा न सकेंगे तेरे बहाने को,
कभी कहेंगे किसी से छिपे फसाने को
--
सियासी लोग वतन से वफा नहीं करते
नियम वो रोज़ बनाते हमें दबाने को
--
है आदमी की नजर हुस्न पर सदा रहती
तमाम उम्र गुज़ारी है आजमाने को
--
न रोजगार न तन की खबर किसी ने ली
बता वो घोषणा क्यों की हमें रुलाने को
--
गिरे हुए को उठाना बुरा नहीं होता
सदा भलाई करो प्यार खूब पाने को
--
गिरह
उधार लाख लिया अब सलाम भी न करे
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को
— दयाराम मेठानी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
जनाब दयाराम जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय समर कबीर जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
आदरणीय Dayaram Methani जी आदाब।
ग़ज़ल के अच्छे प्रयास पर बधाई स्वीकार करें।
है आदमी की नजर हुस्न पर सदा रहती
तमाम उम्र गुज़ारी है आजमाने को ❌ में ✅
वाक्य के हिसाब से रदीफ़ नहीं निभी
// शुभकामनाएँ //
आदरणीय अमित जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी बात सही है कि आजमाने के साथ में होना चाहिए किंतु रदीफ चूंकि को था तो वह लिख दिया। आजमाने के साथ में लगाता तो वो भी गलत होता। आपके सुझाव अनुसार भविष्य में ध्यान रखने का पूरा प्रयास करुंगा।
आदरणीय दयाराम जी नमस्कार
अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिए
सादर
आदरणीय रिचा यादव जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
आदरणीय दयाराम मेठानी जी, इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर
आदरणीय मिथलेश जी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
मेरे कहे को मान देने के लिए हार्दिक आभार
आदरणीय दयाराम जी, अच्छी ग़ज़ल हुई। बधाई स्वीकार करें।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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