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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123
विषय : जय/पराजय
अवधि : 29-06-2025 से 30-06-2025
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अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, 10-15 शब्द की टिप्पणी को 3-4 पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाए इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है। देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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यदि आप किसी कारणवश अभी तक ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार से नहीं जुड़ सकें है तो www.openbooksonline.com पर जाकर प्रथम बार sign up कर लें.
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)

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स्वागतम

सादर प्रणाम, आदरणीय ।

सुन, ससुराल में किसी से दब के रहने की कोई ज़रूरत नहीं है। अरे भाई, हमने कोई फ्री में सादी थोड़ी की है। मुँह माँगा दहेज़ दिया है..और फ़िर उनका लड़का तो कुछ कमाता वमाता है नहीं, निठल्ला है एक नंबर का। कहता था सादी के बाद तुझे बम्बई ले जाएगा। अब खुद ही जाब छोड़कर घर बैठा है। तू दिल छोटा ना कर, फ़ौरन घर चली आ। इन सब पर तो मैं धोखाधड़ी का केस करूँगी।


ठीक है मम्मी.. सुनीता ने फ़ोन पर हामी भरते हुए कहा और फ़ोन रखते ही अटैंची में कपड़े भरने लगी।
कहाँ जा रही हो ? दिनेश ने कमरे में दाख़िल होते हुए पूँछा। अपने घर.. अटैंची बंद करते हुए सुनीता बोली।
सब ठीक तो हैं वहाँ..दिनेश का स्वर, अब चिंताजनक था।


वहाँ तो सब ठीक ही है बस यहाँ कुछ भी ठीक नहीं.. सुनीता धीमे स्वर में बुदबुदाते हुए, अटैंची लेकर कमरे से बाहर निकल गई ।
सुनो..क्या हुआ है ? कुछ बताओ तो, माँ से फ़िर कोई झगड़ा हुआ क्या ? पर वो तो अभी घर पर नहीं हैं उन्हें आ तो जाने दो… कहते कहते दिनेश उसके पीछे दरवाज़े तक जा पहुँचा।


गली के मोड़ पर खड़े रिक्शे वाले ने सुनीता को देखा तो रिक्शा पीछे ले लिया।
कहाँ जाइएगा मैडम ? बिना कोई ज़वाब दिए सुनीता ने अटैंची उठाई और रिक्शे में रख दी और ख़ुद भी रिक्शे में बैठ गई।
जैसे कोई अबोध बालक भीड़ में अपनी माँ का आँचल थाम लेता है , बिल्कुल वैसे ही दिनेश सुनीता का पल्लू पकड़े, पथराई सी आँखों से उसे देखता रहा।
स्टेशन ले चलो, सुनीता ने अपनी चुप्पी तोड़ी तो रिक्शे वाले ने चाबी घुमा दी ।रिक्शे के आगे बढ़ते ही दिनेश कुछ दूर भागा..और अंततः ठोकर खाकर गिर गया ।
अरे साहब जी.. रिक्शे वाले ने ऑटो धीमा किया तो सुनीता ने फटकार लगा दी। आप चलिए.. अगर ट्रेन छूट गई तो भाड़ा नहीं मिलेगा। रिक्शे के बैक मिरर से सुनीता ने सब देखा मगर उसे कोई असर न हुआ।

ख़ैर, सुनीता का मायके में ख़ूब स्वागत हुआ। और अब तो सुनीता को मायके आए एक साल भी बीत चुका था । आज घर में ख़ुशी का माहौल था । हम केस जीत गए हैं, देखो ये सरकारी चिट्ठी और ये मनी ऑर्डर भी आया है। अब तो ये हर महीने आयेगा.. माँ ने खीसे निपोरते हुए कहा । ये लो मुँह मीठा करो.. कहते ही सुनीता की माँ ने उसके मुँह में लड्डू ठूँस दिया। ये लड्डू इतना कसैला क्यों है माँ ? लड्डू उगल कर सुनीता अपने कमरे में चली गई।

पीछली रातों की तरह आज भी सुनीता सो ना सकी.. आँख मूँदते ही रिक्शे का बैक मिरर उसकी आँखों में खुल गया। दिनेश की पथराई सी आखें उसे बेचैन करती रहीं । एक बाँध जो बड़ा सख़्त था आज टूट गया था.. तकिये में मुँह छुपाए सुनीता की सिसकियाँ बार-बार एक ही बात दोहरा रही थीं “ मैं हार गयी माँ.. मैं हार गयी ! ”

(मौलिक व अप्रकाशित)

आदाब। हार्दिक स्वागत आपकी रचना का। प्रदत्त विषयांतर्गत बेहद भावपूर्ण और विचारोत्तेजक कथानक व कथ्य वाली इस रचना में आपने मायके पक्ष की विचारधारा और बेटी की कशमकश को उभारा है। कुछ टंकण त्रुटियाॅं रह गई हैं।  फ्लैशबैक का इस्तेमाल आपने किया है लेकिन प्रस्तुतिकरण से कालखंड दोष का भ्रम हो रहा है। आप शीर्षक लिखना भूल गई हैं। बेहतर होगा यदि आप इसे एडिट कर लें। सादर।

परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी हार्दिक बधाई।आदरणीय उस्मानी जी के कहे का संज्ञान लीजिए। 

हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123
विषय : जय/पराजय

आषाढ़ का एक दिन

“बुधौल लाने के लिए आपको हमारी ही टोली मिली थी, सब की सब गऊ, हमें बुद्धू बनाने की क्या आवश्यकता थी…?”
 “यहाँ आपको क्या पसन्द नहीं आया?”
 “अच्छा प्रश्न है…! दो दिनों पहले ब्याह-बहू भोज वाले स्थल पर हो रहे साहित्यिक कार्यक्रम में हम इसलिए शामिल नहीं हुए कि गरिमामयी अनुभूति नहीं हो पाएगी… और महाविद्यालय के सभागार को सपनों में बसाए हमने यात्रा की! सपनों के शीशमहल की किरचें लहूलुहान कर रही हैं…!यहाँ महाविद्यालय के सभागार के बाहर कैटरर के शामियाना, बन्द पंखे, ढुलमुलाती ये प्लास्टिक की कुर्सियाँ। सोने पर सुहागा ये ग्रामीण श्रोता! क्या इन्हें हमारी रचनाएँ समझ में भी आयेंगी?”
”आपको क्या लगता है भैंस के आगे…,”
थोड़ी देर के बाद कार्यक्रम की शुरुआत हुई और मंच पर बतौर विशिष्ट अतिथियों के रूप में शिकायतें दर्ज करती टोली को बुला लिया गया! भीषण उमस वाली गर्मी का एहसास कम हो चला जब दर्शक-दीर्घा से गम्भीर टिप्पणियाँ तालियों के गूँज के संग आने लगी।
“तूझे तो इन ग्रामीण श्रोताओं पर शक़ था…? शहर की भीड़ तो सिर्फ अपनी रचना सुनाने आती है। जब मंच से दूसरे रचना पाठ कर रहे हों, तो बग़लगीर की गप्पें सुनती है…!”

वरिष्ठ साहित्यकार के पुण्य स्मृति पर्व पर आयोजित साहित्यिक समारोह की समाप्ति पर विदाई के समय सगुन के लिफ़ाफ़े थामते शिकायती गऊ टोली की आँखें सावन-भादो सी झर रही थीं…!

"मौलिक व अप्रकाशित"

आदाब। हार्दिक स्वागत आदरणीय विभारानी श्रीवास्तव जी। विषयांतर्गत बढ़िया समसामयिक रचना।

हाइमन कमीशन (लघुकथा) :
रात का समय था। हर रोज़ की तरह प्रतिज्ञा अपने कमरे की एक दीवार के सीमेंट-प्लास्टर के उस उधड़े हिस्से को एक टक देखे जा रही थी, जो उसे झकझोर कर रख देता था। कहने को तो वह एक धब्बा-सा था दीवार पर, लेकिन उसकी आकृति उसे स्त्री के हाइमन अर्थात कौमार्य झिल्ली जैसी लग रही थी, जिस के बारे में उसने किशोर अवस्था से ही पढ़ रखा था, जब उसकी मॉं और दादी उसके महत्व की मान्यता के बारे में बताया करतीं थीं।
प्रतिज्ञा अपने अतीत से वर्तमान तक के जीवन की एक फ़िल्म-सी देख रही थी कभी ऑंखें फाड़ते हुए, तो कभी उस धब्बे को घूरते हुए और फ़िर वह गहरी निद्रा में चली गई। सपने में वह आकृति उसको संबोधित करते हुए बोली, "तुमने अच्छी बेटी और पोती बन कर अपने आप को बंधनों और सीमाओं में रखकर यह सोचा कि तुम्हारा हाइमन सुरक्षित है, तो सब कुछ बढ़िया है, लेकिन अब तुम्हें समझ आ रहा होगा कि जीत तुम्हारे घर की महिलाओं की हुई या तुम्हारी, है न!"
"मैं एक धार्मिक प्रवृत्ति की थी और हूॅं। धर्म की बहुत सी बातें विज्ञान सम्मत हैं, मैं भी ऐसा मानती हूॅं। मैंने बड़ों की बात मानी, माहौल, सहेलियों और दोस्त लड़कों की नहीं। मैं हारी नहीं भड़काऊ माहौल से। चरित्र रक्षा के साथ पढ़-लिखकर कुछ बन कर दिखाया मैंने। भटकी नहीं। जीत मेरी हुई और हमारे बड़ों की दी शिक्षा की। हार तो बाद में हुई!" प्रतिज्ञा सपने में हाइमन को घूरते हुए बोली।
"क्या तुमने अपने शौक और हुनर का त्याग नहीं किया। खेलकूद में निपुण होते हुए भी वंचित रखा ख़ुद को और साइकल चलाने जैसे शौक को भी!  मैं न चरित्र की कोई प्रतीक हूॅं, न ही कोई दीवार...तुम्हारी जीत या हार की ज़िम्मेदार भी नहीं। तुम ख़ुद ज़िम्मेदार थीं, हो और रहोगी।" दीवार वाली वह हाइमन आकृति ऊपर-नीचे और दायें-बायें झूलती सी प्रतिज्ञा के सम्मुख प्रखर स्वर में बोलती हुई अचानक चीखी, "तुमने कभी अपने गुप्तांग में मुझे देखा? तुम्हारे बड़ों ने देखा या किसी महिला चिकित्सक को दिखलाया। फ़िर कैसे कह सकती हो अपनी हाइमन के आकार-प्रकार, दशा और दिशा की और जन्मजात उपस्थिति की? भेड़चाल के अलावा तुमने क्या किया? पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं को जिताया तुमने या ख़ुद को?"
"नहीं, लेकिन शादी होने पर मेरे पति ने अपना ज्ञान बघारा और अपने तरीक़े से उसका परीक्षण किया!" एक लम्बी सी सॉंस लेकर प्रतिज्ञा ने जब कहा, तो बिस्तर पर वह तक़िये से चिपक कर सिसकने लगी।
"फ़िर कौन जीता? तुम, तुम्हारे संस्कार या तुम्हारा कौमार्य?" हाइमन ने व्यंग्यात्मक लहज़े में पूछा, "अपने पति के कौमार्य की जॉंच-पड़ताल कर सकीं क्या तुम? पता है कुछ भी तुम्हें मेडिकल जॉंचों के बारे में और समाज की इन असंभव-सी जॉंच-पड़तालों के बारे में?"
"पता तो सब है, लेकिन मर्दों की दुनिया में मर्द ही जीतते हैं, पता तो है न तुम्हें!" उसकी निद्रा भंग हो गई और एकदम बिस्तर से उठ कर बैठती हुई वह बुदबुदाते हुए बोली और फ़िर सिसकारी मारते हुए उस दीवार के धब्बे पर नज़रें टिका कर अपने चरित्र पर लगाये गये धब्बे के ताने-बाने में फॅंसी अपनी तलाक़ की तड़प एक बार फ़िर महसूस करने लगी।
(मौलिक व अप्रकाशित)

 जय/पराजय

कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक खेलकूद प्रतियोगिताओं एवं साहित्यिक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। संतोष कुमार पढ़ने लिखने में होशियार तो था ही वह खेलकूद में भी भाग लेने में आगे रहता था। तेज साईकिल चलाना उसका शौक था वह उस पर करतब भी करके दिखाता था। उसका शरीर भी लचीला व स्वस्थ था। वह अपने स्वास्थ्य का ध्यान भी रखता था। उसके सभी मित्रों को विश्वास था कि वह साईकिल रेस का तो बेताज बादशाह है। वह साईकिल रेस अवश्य जीतेगा। अतः संतोष ने भी उसमें भाग लेने के लिए अपना नाम लिखा दिया। इस बार साईकिल रेस 200 मीटर की ही थी। संतोष ऐसी रेस पहले भी जीत चुका था। अतः उसे व उसके मित्रों को पूरा विश्वास था कि संतोष ही यह रेस जीतेगा।
निश्चित समय पर रेस आरंभ हुई। संतोष ने भी अपनी साईकिल को बड़े जोश से पैडल पर पैर चलाये। थोड़ी ही देर में वह सबसे आगे हो गया। संतोष जोश से साईकिल चलाये जा रहा था। उसका इरादा इस बार सबको बहुत पीछे छोड़ने का था। अतः वह और अधिक तेजी से साईकिल चलाने लगा और वह दूसरों से काफी आगे भी होगया। तभी अचानक संतोष का लगा कि उसका दिल एक आग को गोला बन गया है और उसकी छाती में गर्माहट तेजी से बढ़ रही है। वह घबरा गया। वह मां बाप की अकेली संतान था। उसने सोचा कि अगर वह रेस जीतने के बाद मर गया तो उसके मात पिता का क्या हाल होगा। यह सोच कर उसने साईकिल पर पैडल लगाना बंद कर दिया और अपने जीवन की कुशलता की बात सोचने लगा। लक्ष्य मात्र 25 मीटर ही दूर था और संतोष आराम से प्रतियोगिता जीत सकता था किंतु उसने मन में धार लिया कि एक पैडल भी उसकी मौत बन सकता है। अतः वह हैंडिल पकड़े साईकिल पर बैठा रहा। साईकिल स्वतः चल रही थी। धीरे धीरे उसके पीछे चल रहे दूसरे प्रतियोगी उसके आगे निकल गये पर संतोष ने ध्यान नही दिया। उसके साथी भी चिल्ला कर उसे आगे बढ़ने को कहते रहे किंतु उसने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसकी आंखों के आगे केवल अपने मात पिता की तस्वीर थी।
रेस पूरी हुई। पहले नबंर पर आने वाला पैडल लगाना बंद करने के कारण पांचवे स्थान पर आया। वह हार गया था। वह साईकिल छोड़ एक कुर्सी पर बैठा और उसकी हालत देख एक मित्र उसके लिए पानी लाया। उसे पिलाया और संतोष के कहने पर उसे घर पंहुचाया। उसकी हालत देख मां बाप भी घबराये। कुछ देर बाद संतोष की हालत ठीक हुई तो पिता ने पूछा क्या हुआ बेटा? संतोष ने कहा ‘‘पापा आज मैं साईकिल प्रतियोगिता तो हार गया पर जीवन जीनें की जंग जीत आया हूँ। इसका मुझे गर्व है।

- दयाराम मेठानी

हार्दिक स्वागत मुहतरम जनाब दयाराम मेठानी साहिब। विषयांतर्गत बढ़िया उम्दा और भावपूर्ण प्रेरक रचना। जान है, तो जहान है। रेस बाद में और भी जीतीं जा सकती हैं। स्वास्थ्य जन-जागरण की बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई। इसमें कसावट की गुंजाइश लगती है। (जैसे कि '..लचीला और स्वस्थ्य' वाला वाक्य लिखने के बाद अगले वाक्य की आवश्यकता नहीं है।)बाद विषय ऊपर लिखा है आपने, जो शायद शीर्षक नहीं है। शीर्षक सुझाव: जान और जहान/ प्रत्युत्पन्नमति/जंग के दो रंग आदि।

आदरणीय शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीर्षक लिखना भूल गया जिसके लिए खेद है। लेखन में कसावट ही लघु कथा को महत्व प्रदान करती है। प्रयास करुंगा कि भविष्य में बेहतर लेखन हो। सादर।

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"आदरणीय सौरभ भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार , आपके पुनः आगमन की प्रतीक्षा में हूँ "
12 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय लक्ष्मण भाई ग़ज़ल की सराहना  के लिए आपका हार्दिक आभार "
12 hours ago
Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
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Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"धन्यवाद आदरणीय "
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Jaihind Raipuri replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय कपूर साहब नमस्कार आपका शुक्रगुज़ार हूँ आपने वक़्त दिया यथा शीघ्र आवश्यक सुधार करता हूँ…"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, बहुत सुन्दर ग़ज़ल है आपकी। इतनी सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​ग़ज़ल का प्रयास बहुत अच्छा है। कुछ शेर अच्छे लगे। बधई स्वीकार करें।"
Sunday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"सहृदय शुक्रिया ज़र्रा नवाज़ी का आदरणीय धामी सर"
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Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, ​आपकी टिप्पणी एवं प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आदरणीय आज़ी तमाम जी, प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-181
"आ. भाई तमाम जी, हार्दिक आभार।"
Sunday

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