परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 119वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अहमद फराज़ साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"इस आशिक़ी में जान से जाना बहुत हुआ "
221 2121 1221 212
मफ़ऊलु फाईलातु मफ़ाईलु फ़ाइलुन
(बह्र: मुजारे मुसम्मन् अखरब मक्फूफ महजूफ )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 22 मई दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 23 मई दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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प्रिय भाई नाकाम
आदाब
तरही मुशायरे में आपका स्वागत है.
मतला जितना बढ़िया है उतना ही मक़ता भी.शानदान तरही ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद.
आभार है आपका , अब गुणीजन की समीक्षा का इंतजार है ।
आदरणीय नाकाम भाई जी बहुत ही खूबसूरत गजल कहीं ढेरों बधाइयां। शेर दर शेर दाद कबूल फरमाए।
एक संशय है कृपया समाधान करें।
अब कर के तुम दिखाओ भी जादूगरी कोई
यूँ रोज़ तेरा गाल बजाना बहुत हुआ
मिश्रा ऊला में 'तुम' शब्द का प्रयोग किया गया है और मिश्रा सानी में 'तेरा' शब्द प्रयोग किया गया है क्या इसमें कोई दोष उत्पन्न हो रहा है या नहीं। धन्यवाद
जी भाई सही कहा,
"अब करके कुछ दिखा भी तू जादूगरी नई'
या मिसरा ए सानी को
यूँ रोज रोज गल बजाना बहुत हुआ
इसे ऐसे पढें
आपका आभार ।
वाह वाह क्या बात है बेहतरीन ग़ज़ल
बहुत खूब सूरत ग़ज़ल बहुत बहुत बधाई
बहुत शुक्रिया जनाब
शुक्रिया
जनाब नाकाम साहिब आदाब, शायद पहली बार ओबीओ के मुशाइर: में आपकी ग़ज़ल देख रहा हूँ,मंच पर आपका स्वागत है ।
तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'लहरों से डर के नाव छुपाना बहुत हुआ
साहिल पे कश्तियों का ठिकाना बहुत हुआ'
मतले के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,ग़ौर करें ।
'अब कर के तुम दिखाओ भी जादूगरी कोई
यूँ रोज़ तेरा गाल बजाना बहुत हुआ'
इस शैर में शुतरगुरबा दोष है,जिसे आप नीचे की टिप्पणी में दुरुस्त कर चुके हैं ।
'इक ख़्वाब को तो शक़्ल भी दो जागकर कोई
नींदों में तेरा ख़्वाब सजाना बहुत हुआ'
इस शैर में भी शुतरगुरबा दोष है,ऊला में 'दो' की जगह "दे" करने से दोष निकल जायेगा,और हाँ ऊला में 'शक़्ल' को "शक्ल" कर लें ।
'अब तो गिरेबां आका की पकड़ो भी मेरे यार'
इस मिसरे में 'आका' को "आक़ा" कर लें,और 'गिरेबाँ' शब्द पुल्लिंग है इसलिए 'की' को "का" कर लें ।
'तू देख लपट हौसले की आग की मेरे'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज हो रहा है,देखियेगा ।
'ये प्यार का बेज़ान तराना बहुत हुआ'
इस मिसरे में 'बेजान' शब्द में 'बे' की मात्रा गिराना उचित नहीं,और 'बेज़ान' नहीं "बेजान" शब्द है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'बेजान प्यार का ये तराना बहुत हुआ'
आदरण नाकाम जी, बहुत सुंदर गजल सर्जन के लिए बधाई स्वीकार करें।
इंसान के लिए भी ज़रा आओ जी लें हम
पत्थर पे अपनी जान लुटाना बहुत हुआ.......सुंदर संदेश देता शेर।
इस दिल के मैल को भी कभी साफ तुम करो
साबुन लगा के रोज़ नहाना बहुत हुआ.....अति सुंदर। लाजवाब।
भाई नाकाम जी, बहुत ही अच्छी ग़ज़ल हुई है। जो गुणीजनों की राय है, उसके बाद हमारा कुछ कहना सूरज के सामने दीपक रखने जैसा है। अतः उनकी बातों का संज्ञान अवश्य लें। सादर
आ. भाई नाकाम जी, गजल कप्रयास अच्छा है ।हार्दिक बधाई ।
जनाब नाकाम साहब ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है बहुत-बहुत बधाई साथियों बातों का संज्ञान लें
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