आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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अच्छी लघुकथा हुई है भी सतविन्द्र कुमार जी, बधाई प्रेषित हैI
कौन किस परिस्थिति की जिम्मेदारी ले ? एक महीन विसंगतिपूर्ण क्षण विशेष को बड़ी सहजता से उकेरा है आपने आदरणीय सतविन्द्र जी . बहुत -बहुत बधाई आपको .
जनता और घर दोनों के आक्रोश को उभारती लघुकथा।इसमें रिमोट की संवेदना भी शामिल हो गई। बढ़िया
आदरणीय सतविन्द्र जी . बहुत -बहुत बधाई आपको एक नयी संवेदना के साथ आक्रोश का अंत करती रचना के लिए
बहुत अच्छी रचना हुई है आदरणीय सतविन्द्र जी , बधाई स्वीकारें |
अपने बारे में (आक्रोश )
"लो आ गई ठीक समय पर। घड़ी मिला लो इनसे।" गिलास ने थाली को कोंचा। उनकी बात से बेख़बर गोपुल दी आकर चौखट पर बैठ गईं।
" हाँ ! इन्हें तो सदियों की बेड़ियों से भी कुछ फ़र्क नहीं पड़ता है।पर मैं तो शर्म से ज़मीन में गढ़ जाती हूँ जब ठकुराइन दूर से रोटी और सब्ज़ी मेरे ऊपर फेंकती हैं।" थाली ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
" मुझे भी अच्छा नहीं लगता ये सब।आखिर हमारे साथ इतना भेदभाव क्यों करते हैं? हम दूसरे बर्तनों से भला किस मामले में कम हैं?" गिलास ने नाराज़गी ज़ाहिर की।
"यही तो , मैं तो घर से बाहर ताक पर अलग-थलग बहुत बेगाना महसूस करती हूँ अपने को।" थाली की उदासी उसकी बातों से टपक रही थी।
" अच्छा ! पर गोपुल दी तो खुश होती हैं कि ठकुराइन और वे साथ साथ चाय पीती हैं। खाना खाती हैं।बतियाती हैं।सुख दुःख बाँटती हैं।पर मैं, अब इस चापलूसी से उकता गया हूँ।" गिलास की आवाज़ में बग़ावत की बू महसूस हो रही थी।
" वो तो भोली है गिलास भाई ! पर मैं महसूस कर रही हूँ, तुम्हारे अंदर की आग को ... देखना वह एक दिन इस दकियानूसी परम्परा को जला डालेगी।" चौखट बोली ।
" वो कैसे ?"थाली अपनी उत्सुकता छुपा न पाई।
" क्योंकि अब तुम लोगों ने अपने बारे में सोचना जो शुरू कर दिया है।"ये कह चौखट कुछ सोचकर मुस्कुरा दी।
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