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रिश्तों को नई परिभाषा
“मेरे बाप ने मुझे बदतमीज़ और बिगड़े हुए बेटे का ख़िताब दिया होगा और मैनें भी बाप को पुराने ख्यालों वाला और जाहिल इन्सान करार दिया. ऐसा सिर्फ मेरे या मेरी पीढ़ी के लोगों के साथ ही नहीं हुआ, हर दौर के माँ बाप व् बच्चों के साथ ऐसी तकरार चलती रही है और चलती भी रहेगी शायद....., उस का अपना तर्क था |
“हाँ ! हर दौर में कुछ लोगों ने हलात के साथ समझोता किया होगा कुछ लड़े होंगे और जीत या हार गए होंगे” वह रात भर यही सोचता रहा, उस के मन में बार बार ऐसे ही ख्याल आते रहे. वह सो भी न पाया |
“वह तब से जब से रमेश से तकरार में उलझा रहा था, बीते कल की बहस के बारे उसने क्या तर्क दिए और उस के अपने क्या जवाब थे सब के बारे सोचता रहा, कल देर रात तक जिस प्रसंग में उन दोनों के बीच बहस चल रही थी, और बात भी न जाने कैसे शुरू हुई और एक बार शुरू हुई तो समाप्त होने का नाम न ले रही थी - संक्षिप्त में उस बातचीत या कह लें बहस का केंद्रीय मुद्दा था “हमारे युग में माँ बाप व् बच्चों के दरमियाँ पैदा होती दरार” |
मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसने बहस के अंत में खुद को ऐसी स्थिति में क्यों और कैसे पाया यहाँ उसने ये सोचने या कह देने की बजाये कि “ये नई पीड़ी में सब कुछ बकवास ही चल रहा है, वह अपनी व अपने पिता की उस पुरानी मनो दशा में उतर गया और इसी बात कि तर्क कुतर्क में घंटों उलझा रहा कि हमारे बजुर्ग कैसे अच्छे थे और कैसे हम सब बाप की कही हर सही गलत बात पर फूल चडाते रहे थे | सौरभ भी तब उस की हिमायत में उतर आया और व्यंग से बोला, “क्योंकि हम तो बाप के बंधुआ मजदूर थे उनके कहे मुताबिक काम करते थे, हम अपनी मर्जी नहीं करते थे. कभी कोई हक भी नहीं जतला सकते थे और क्या कहें कि अरमानों को दिल की कबर में ही दफन कर लेते थे ” |
तब हमारे माँ बाप दोस्तों व् रिश्तेदारों को सर उठा कर कहते थे “हमारे बच्चों ने ‘न’ कहना तो सीखा ही नहीं ” "हमारी बेटी तो गाय है". इत्यादि इत्यादि. अब जब सौरभ यही बात अपने दोस्तों को बतलाना चाहता है तो उसे समझ नही आता कि अपने माँ बाप कि इन शब्दों को ‘इज्जत’ के खाते में रखे या ‘गुलामी’ के. और यह कैसे संभव हो जाता था कि ‘न’ कहना तो हमने सीखा ही नहीं ” तब उसे रमेश की कही यह बात याद आई “कल को हमीं लोग बज़ुर्ग होंगे और हमें भी उन हालातों के साथ जूझना पड़ेगा और तब शायद माँ बाप कि थमाए वो हथियार हमारे काम न आयें और हमें नए बनाने पड़े.” |
"तो क्या जंग जारी रखने का इरादा है", वह हंस कर बोला था. |
“पता नहीं अब तक क्यों जाने वाली पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को कोसती रही है,खुद को दुसरे से अकलमंद दिखाने की कोश्शि करती रही है” कहते हुए वह उठ गया कल उसने बहस को बीच में छोड़ते हुए रमेश को पीढीयों यो दरमियाँ बनते नए रिश्ते की परिभाषा लिखने के लिए कहा था, आज उसके कमरे में उसके साथ बैठ वह लैप टॉप में रमेश की लिखी नए रिश्तों की परिभाषा को पढ़ रहा था, “हम आप की इज्जत तो करते, दिखाते नहीं,हमारे दिल की बात जुबान पे होती है,हम छुपाते नहीं” तब उस ने ये लिख कर ‘रिश्ते जरूरत से बनते हैं,खून वाले रिश्ते भी…..,” इस परिभाषा को अपने मुताबिक पूरा किया,और फिर दोनों ने साथ साथ इसको पढ़ा और दोनों एक दुसरे की तरफ देखने लगे |
"मौलिक व अप्रकाशित"
अच्छा प्रयास है आ० मोहन बेगोवाल जी I
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी कथा के विस्तार के कारण कथा में निहित संदेश पूरी तरह से उभर कर सामने नहीं आ पाया । आपकी रचना को पढ़ते समय बीच में ऐसा भी लगा कि मैं कोई निबन्ध पढ़ रहा हूं । यदि इसी कथा को थोड़े सारगर्भित ढंग व स्टीकता से कहा जाता तो कथा ने छुपा संदेश न केवल स्पष्टता के साथ उभरता बल्िक पाठक के लिए भी रूचिकर होता । बहरहाल आपके प्रयास के लिए आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं ।
बहुत बहुत बधाई आ. मोहन बेगोवाला जी सुन्दर व सार्थक प्रयास के लिए।
रिश्तों को परिभाषित करती हुई इस लघु कथा पर आपको हार्दिक बधाई आ० मोहन बेगोवाल जी सच कहा पीढ़ियों के अनुसार रिश्तों की परिभाषाएं भी बदलती रही हैं आगे भी बदलती रहेंगी |
आदरणीय मोहन बेगोवाल सर एक बढ़िया कथानक उठाया है आपने किन्तु कथा का आकार इसे उभरने नहीं दे रहा है. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी, लघुकथा बहुत लंबी हो गई है जिससे स्पष्टता नहीं आ पाई है।
आदरणीय मोहनजी, आपकी प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद. कथानक से कई वाक्यों को हटाना आवश्यक है जो कथानक में कोई योगदान नहीं कर रहे हैं
प्रस्तुति हेतु हार्दिक धन्यवाद
“अब आपके सामने आठवीं कक्षा के प्रियांक आ रहे हैं ‘आदर्श परिवार’ पर अपने विचार प्रस्तुत करने कृपया तालियों से बच्चों का उत्साह वर्धन करते रहें”| एक बार फिर सब बच्चों के माता-पिता से खचाखच भरा हुआ हाल तालियों से गूँज उठा|
प्रियांक के मम्मी-पापा अवाक एक दूसरे को देखते रह गए एक हफ्ते पहले ही तो प्रियांक ने दोनों से ‘आदर्श परिवार’ की परिभाषा पर अपने विचार लिखने के लिए दोनों से सहायता मांगी थी मगर उन दोनों ने ही एक दूसरे पर ये काम डाल दिया था अंततः कोई सा भी उसकी मदद नहीं कर पाया था| अब प्रियांक क्या बोलेगा यही सोचकर दोनों के दिल की धड़कने तेज हो गई|
“आदर्श परिवार वो है जहाँ सुबह-सुबह भगवान् को हाथ जोड़कर नमस्कार किया जाता है ,जहाँ सुबह सबसे पहले दादा दादी को चाय दी जाती है,जहाँ मम्मी पापा काम में एक दूसरे का हाथ बटाते हैं,बात-बात पर झगड़ा नहीं करते,जहाँ बच्चों की ख़ुशी का ध्यान रखते हैं, घर में हँसी गूँजती है, सुख शान्ति निवास करती है वो ही आदर्श परिवार होता है” प्रियांक इधर ये सब कह रहा था उधर मम्मी पापा दोनों की गर्दने गर्व से तनी जा रही थी,आँखों में चमक बढ़ रही थी |
कुछ रुक कर प्रियांक आगे बोला “ क्यूंकि झूठ बोलना पाप है इसलिए मैं सच कहता हूँ ये आदर्श परिवार मेरे दोस्त गोलू जो हमारे ड्राईवर का बेटा है उसका है उसी ने मेरा ये स्पीच तैयार करवाया , मेरे अपने परिवार की परिभाषा क्या है वो मुझे नहीं आती”.
मौलिक एवं अप्रकाशित
आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरे अनुसार आपकी यह रचना कालजयी है| परिवार में शांति-हंसी-ख़ुशी से ही सुख का वास होता है यह समझने की आवश्यकता हर युग में थी और रहेगी| हार्दिक बधाई स्वीकारें| (लघुकथा का शीर्षक टाइप होने से रह गया है ये भी कृपया देख लें)
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