आदरणीय साथियो,
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वो आ गए
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"बहुत भाग्यवान हो तुम। अभी आई और अभी सब के प्रेम, अर्चना, ममत्व और प्रार्थनाओं की अधिकारिणी हो गई"।
"अरे! हम दोनों हैं तो एक का ही स्वरूप; दोनों में एक ही का वास है; दोनों में उसी के दर्शन हैं। फिर मन क्यों छोटा कर रही हो। लोग चाहे तुम्हें देखें या मुझे, नाम तो वो एक ही लेते हैं और उसी का ध्यान करते हैं"।
"वो सब ठीक है। पर फिर भी मेरे मन में एक बात है, तुम बुरा न मानो तो कह दूँ"।
"कहो ना"।
"दशकों तक धूप, बारिश, गर्मी, सर्दी सब मैंने सहा। सिर्फ़ इसी प्रतीक्षा में कि इसका सुफल मिलेगा। तुम्हें पता है! मेरे पास वस्त्र भी गिने-चुने होते थे। यहाँ तक कि मुझे रहना भी तंबू में पड़ा। और तुम देखो, आते ही महल मिल गए। तुम्हें देख कर हर्ष मिश्रित ईर्ष्या हो रही है मुझे"।
"हा हा हा। ये भी खूब कही। किन्तु यदि प्रतीक्षा ही मानदंड है तो मेरी प्रतीक्षा तुमसे बहुत लंबी है"।
"वो कैसे"।
"ढाई अरब साल तक एक पत्थर बनकर मैंने अपने ऊपर बोझ सहा। फिर छैनी-हथोड़े के असंख्य प्रहार। फिर मन में धुकधुकी लगी रही कि क्या मुझे ही चुना जाएगा। लंबी प्रक्रिया। फिर कहीं जाकर ये सौभाग्य मिला"।
"क्या सचमुच"।
"हाँ री, जैसे अहिल्या ने राह देखी, जैसे शबरी ने देखी; वैसे ही मैंने भी राह देखी है राम की। सदियों सदियों से। पर मुझे विश्वास था, वो आएंगें। और वो आ गए। और देखना, वो तुम्हें भी नहीं बिसारेंगें। वो सब की प्रतीक्षा का फल देते हैं"।
#मौलिक एवं अप्रकाशित
आदाब। आप आ गये बेहतरीन समसामयिक विचारोत्तेजक रचना के साथ। गोष्ठी का बढ़िया आग़ाज़ करने हेतु हार्दिक मुबारक़बाद जनाब अजय गुप्ता 'अजेय' साहिब। तथ्यों और कथ्य/कथ्यों पर तो वरिष्ठजन ही कुछ कह सकेंगे। मैंने भी ऐसे विषयांतर्गत ही एक प्रयास किया है।
हार्दिक बधाई आदरणीय अजय जी। आज की लघुकथा गोष्ठी के आगाज की पुनः हार्दिक बधाई ।लघुकथा की विषय वस्तु नवीनतम और वर्तमान परिवेश से जुड़ी हुई है। लेकिन अंतिम पंक्ति थोड़ा विरोधाभास पैदा कर रही है। शबरी और अहिल्या की प्रतीक्षा साक्षात राम के लिये थी और उनके स्वंय के उद्धार के लिये थी। जबकि लघुकथा के शेष भाग में वार्तालाप राम जी की दो मूर्तियों के मध्य हो रहा प्रतीत होता है। उनको किस की प्रतीक्षा थी। यह अस्पष्ट है।फिर भी रोचकता बरकरार है। आपकी लेखन शैली उच्च कोटि की है। कुल मिलाकर आप इस रचना हेतु बधाई के पात्र हैं।
आदरणीय तेजवीर जी, रचना पर अपने बहुमूल्य विचार रखने के लिए और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार। मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि रचना का पटाक्षेप संतुलित नहीं है। उस पर कार्य जारी है और शीघ्र ही उसमें परिवर्तन करूँगा। पुनः आभार आपका
आदरणीय शेख उस्मानी जी, रचना तक आने और अपना स्नेह देने के लिए बहुत आभार।
टैंट वाले राम लला की मूर्तीऔर प्राण प्रतिष्ठा वाली मूर्ती के के बीच संवाद की कल्पना प्रभावशाली लगी। धर्म और दर्शन के आगे कुछ सामाजिक सरोकार का विस्तार और देकर अंत अधिक प्रभावशाली किया जा सकता था।बहरहाल एक अच्छी रचना से आयोजन का फीता काटने के लिए आपको हार्दिक बधाई
भूखे (लघुकथा) :
बड़े अस्पताल के बाह्य रोगियों की भीड़-भाड़ में बंदर भी अपनी भोज्य सामग्री की जुगाड़ में थे। तभी एक वरिष्ठ बंदरिया एक झोले की चीर-फाड़ कर बचे-खुचे भोजन के लिए प्लास्टिक के टिफिन ऐसे खोलने लगा जैसे कि प्रशिक्षित या अनुभवी हो। लोग यह दृश्य देखकर मज़े ले रहे थे। बाल-बंदर अस्पताल की बिल्डिंग के छज्जे से अपनी मां की गतिविधियों को ग़ौर से देख रहे थे।
"मम्मी छोड़ दो वह सब। लोग हंस रहे है! तुम्हारा वीडियो बना रहे हैं!" बंदरिया का एक बच्चा बोला।
"हंसने दो! हम उन पर हंसते हैं और हंसेंगे... इतना सारा भोजन यूं ही फैंकते हैं... बरबाद करते हैं। हम ही तो इस अन्न की क़ीमत समझते हैं!"
"मम्मी, आ जाओ वापस... हम जूठन नहीं खायेंगे अब! देखो उन लोगों के बच्चे पैकेटों में नई -नई चीज़ें खा रहे हैं। हमें भी पैकेट ही चाहिए!" दूसरे नन्हे बंदर ने कहा।
भूखी बंदरिया भीड़ से डरकर जूठन बच्चों तक नहीं पहुंचा सकी, तो खुद ही किसी तरह पेट पूजा करने लगी।
दर्शकों की भीड़ में एक महिला अपने पेट पर हाथ धरे अपने साथ के भूखे मरीज़ और बच्चों को निहारते रह गई।
(मौलिक व अप्रकाशित)
कृपया /ऐसे खोलने लगा/ को /ऐसे खोलने लगी/ पढ़ियेगा।
लघुकथा गोष्ठी में सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी। लघुकथा आपके नाम के अनुरूप नहीं है। पाठक आपसे और अधिक उच्च स्तरीय लेखन की अपेक्षा रखता है। आप एक सशक्त लघुकथाकार हैं। आपकी लेखनी ने बहुत सारी अनूठी रचनायें दी हैं। उम्मीद है आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा नहीं लेंगे।
आदाब। आपकी बेबाक स्पष्ट प्रतिक्रियाओं और समीक्षात्मक टिप्पणियों ने हमेशा मुझे मार्गदर्शन दिया है और प्रोत्साहित किया है। हार्दिक धन्यवाद आदरणीय तेजवीर सिंह जी। और अधिक परिश्रम करने की कोशिश करता रहूंगा।
आदरणीय शेख उस्मानी जी, आपकी लेखनी लघुकथा के अनंत पहलुओं को सम्मुख लाती रही है। और उनमें विभिन्न भाव और जागरूकता के विषय आपने उठाए हैं। इसमें भी आपने अच्छा संदेश प्रस्तुत किया है कि संसाधनों के समुचित और समान वितरण कि प्रतीक्षा जाने कब समाप्त होगी। फिर भी मैं तेजवीर भाई कि बात से सहमत हूँ कि आप निःसंदेह इसे और सशक्त कर सकते हैं।
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