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तेरे मेरे दोहे ......

तेरे मेरे दोहे :......

बनकर यकीन आ गए, वो ख़्वाबों के ख़्वाब ।
मिली दीद से दीद तो, फीकी लगी शराब ।।

जीवन आदि अनंत का, अद्भुत है संसार ।
एक पृष्ठ पर जीत है, एक पृष्ठ पर हार ।।

बढ़ती जाती कामना ,ज्यों-ज्यों घटता  श्वास ।
अवगुंठन में श्वास के, जीवित रहती प्यास ।।

कल में कल की कामना ,छल करती हर बार ।
कल के चक्कर में फँसा , ये सारा संसार ।।

बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।
उम्र भर का दे गए, इस चश्म को फ़राग़ ।।

तन्हाइयों में गूँजने, लगे हिज्र के राग ।
तारीकी में वस्ल की, सुलगी दिल में आग ।।

सुशील सरना/28-11-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 12:04pm

"बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।

 उम्र भर का दे गए, इस चश्म को फ़राग़ ।।"   वाह... आदरणीय, बहुत ख़ूब परिमार्जन किया है आपने,  पुनः बधाई।  सादर। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 6, 2021 at 10:29pm

आ. भाई सौरभ जी, आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूँ ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2021 at 8:20pm

आदरणीय सुशील सरना जी का दोहा कहीं खारिज नहीं होने जा रहा है, आदरणीय नीलेश जी. 

भ्रमकारी सुझाव कहने के कारणों पर व्यावहारिक रूप से मनन करें तो आपको मेरे कहे तथ्य स्पष्ट होंगे. हम नाहक ही देवनागरी की बैसाखी पर चलती हुई उर्दू को तूल देते हैं, जिसकी अपनी अलग किंतु समृद्ध लिपि है और अपना बहुआयामी विस्तार है. वर्ण में नुख्ता लगा देने से देवनागरी की वर्णमाला में किसी वर्ण का इजाफा नहीं हो जाता, न ही वह वर्ण अपना अलग समूह बना लेता है. यह प्रासंगिकता के नाम पर विशेष वर्ग के कुछ लोगों की अपनी मान्यता है, न कि वर्णमाला का विधान.  

किसी देवनागरी लिपि में लिखने वाले हिंदीभाषिक रचनाकार को दोनों ज के बीच का अंतर कैसे और कहाँ-कहाँ बताते चलेंगे ? यदि प्रयास ही करने को उत्सुक होंगे तो उसे रचनाकर्म पर काम करने के पूर्व उर्दू की तालीम देंगे ?

तो फिर रचनाकार रचनाओं पर काम करेगा या पहले भाषाविद बनेगा ? 

सादर

Comment by Sushil Sarna on December 6, 2021 at 1:10pm
आदरणीय तेज वीर सिंह जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार । सादर नमन
Comment by TEJ VEER SINGH on December 5, 2021 at 6:52pm

हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी। बेहतरीन दोहे।

Comment by Sushil Sarna on December 4, 2021 at 8:25pm
आदरणीय अमीरुद्दीन साहिब, आदाब - सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 4, 2021 at 4:04pm

जनाब सुशील सरना जी आदाब, मुझे दोहे अचछे लगे, बधाई स्वीकार करें। सादर। 

Comment by Sushil Sarna on December 2, 2021 at 8:19pm
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 2, 2021 at 12:29pm

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन । सुंदर दोहे हुए हैं । हार्दिक बधाई। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 1, 2021 at 11:02am

आ. सौरभ सर, 
आग के उच्चारण का  और चराग़ के उच्चारण के  का अंतर  आप भी जानते और समझते हैं अत: मेरे सुझाव को भ्रमकारी कहना साहित्य के साथ अन्याय है. यह ठीक हिन्दी के  और  को अथवा  और  को दोहे के तुकान्त में लेने जैसा है ..
इस दोहे में 
इन्तिज़ार में बुझ गए, जलते हुए चराग़ ।
दिल में लेकिन वस्ल की, सुलगी धीमी आग ... इंतज़ार, चराग़ दिल वस्ल लेकिन आदि अधिकांश शब्द उर्दू भाषा के हैं अत: ऐसे में यदि एक शब्द और ठीक ले लिया जाए तो मुझ जैसा नासमझ भी ऑब्जेक्शन नहीं ले सकेगा.. यही सोच कर टिप्पणी की थी ..
वैसे भी लेखक ने स्वयं ग़ को नुक्ते के साथ प्रयोग में लिया है जिससे यह स्पष्ट है कि उन्हें भी ग और ग़ का अंतर पता है ..
यदि यह शब्द तुकान्त के इतर कहीं होता तो मैं यह सुझाव कतई नहीं रखता..
आ. सरना जी का दोहा कहीं  और जा कर ख़ारिज हो इससे बेहतर है कि हम सब घर में लड़ झगड़ कर/ बहस कर  के दोहा पक्का कर  दें  .. ये अपना घर है, यहाँ यह बातें न करें तो कहाँ करें..
फिर मेरा कोई आग्रह भी नहीं कि वे इसे बदले ही.. अंतत: यह उनकी कृति है, उनकी इच्छा का सम्मान रहेगा.
सादर  

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